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नैन में रैन गँवाए जाऊँ, वक्त पहाड़ जुदाई का
जाने सूरज कब निकले, है वक्त अभी रुसवाई का
उनको कोई ग़रज़ नहीं जो पूछें हाल हमारा भी
कोई दूजी वज्ह नहीं, परिणाम है कान भराई का
हमनें चाँद के दाग पे केवल शेर पढ़ा इक, महफ़िल में
चहरे का रँग बोल रहा था हाल खुदी हरजाई का
खुद की ख़ता भी खुद को सज़ा भी, रोना धोना कैसा फिर
देवी उसको बना दिया, फिर मुद्दा कहाँ रसाई का
यारों चिंता कोई न करिए, रोज़ मिलूँगा राहों में
याद में जलना, शेर में ढ़लना, काम है इस सौदाई का
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय पंकज जी, अच्छे अशआर हुए हैं, हार्दिक बधाई.
यूं तो इस बह्र में १२१२ या २१२१ की संरचना का प्रयोग अक्सर किया गया है, लेकिन वस्तुतः यह एक अरूजी असावधानी है जो मीर द्वारा हुई और दूसरे शायरों द्वारा उसी का अनुकरण किया गया. इस लिए इससे बचना ही बेहतर होगा.
सादर
आदरणीय ब्रज जी बहुत शुक्रिया
आदरणीय सुरेंद्र जी सादर धन्यवाद
आदरणीय काली प्रसाद जी सादर आभार
बड़ी ही खूब ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर
आदरणीय पंकज कुमार जी ,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है , बधाई स्वीकार करें ।
आ पंकज कुमार जी ,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है , बधाई स्वीकार करें
ठीक है ।
आदरणीय सुरेंद्र सर मैंने समुचित संशोधन का प्रयास किया है
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम मसला की जगह पर भी मैंने परिणाम कर दिया है अभी फिलहाल इतना ही
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