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तुम्हारे दीद की ख़ाहिश अभी अधूरी है
इसीलिए तो निगाहें खुली ही छोड़ी है
तमाम ख़ाब हैं आँखों में तेरी ही ख़ातिर
बुलाऊँ नींद, तेरा आना अब ज़रूरी है
किसी अज़ीज़ नें आख़िर मुझे सिखाया तो
यूँ रोज़ रोज़ ग़ज़ल लिखना बेवकूफ़ी है
जहाँ के लोगों के दुःख दर्द का गरल अपने
उतारा सीने में तब ही कलम ये पकड़ी है
बताऊँ कैसे उन्हें शायरी जुनून हुई
नसों में दौड़ती पंकज के, ये बीमारी है
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण सर बहुत बहुत आभार
हार्दिक बधाई ।
आदरणीय अजय जी आपकी बहुत बहुत शुक्रिया, ऐसी गल्ती मुझसे अक्सर हो रही, मेरी लापरवाही
सत्य वचन ।
आदरणीय पंकज जी, अच्छे अशआर हुए है, हार्दिक बधाई.
'दीद' स्त्रीलिंग है, इस लिए इस के साथ 'तुम्हारी' का प्रयोग बेहतर होगा.
सादर
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले के सानी मिसरे में 'निगाहें' शब्द बहुवचन है और रदीफ़ एक वचन में देखियेग ।
दूसरे शैर में क्या कहना चाहते हैं?भाव स्पष्ट नहीं ।
तीसरे शैर में ये ग़लत मशविरा किसने दे दिया आपको ।
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