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गरीब खाने तलक रोटियां नहीं जातीं ।
तेरे जहान से क्यूँ सिसकियाँ नहीं जातीं ।।
कतर रहे हैं वो पर ख्वाहिशों का अब भी बहुत।
नए गगन में अभी ,बेटियां नहीं जातीं ।।
वो तोड़ सकता है तारे भी आसमाँ से मग़र ।
मुसीबतो की ये परछाइयां नहीं जातीं ।।
यकीं करूँ मैं कहाँ तक जुबान पर साहब ।
लहू से आपके खुद्दारियाँ नहीं जातीं ।।
तमाम दे के रियायत हुजूर देख लिया ।
खराब कौम से गद्दारियाँ नहीं जातीं ।।
सियासतों का ये मंजर न पूछ अब हमसे ।
सियासतों से यहाँ खामियाँ नहीं जातीं ।।
नए निज़ाम से उम्मीद और क्या करना ।
चमन से आज भी दुश्वारियां नहीं जातीं ।।
नज़र का फेर था या फिर था हादसा कोई ।
दिलो दिमाग से रानाइयाँ नहीं जातीं ।।
न जाने क्या हुआ है आपकी निगाहों को ।
मेरे वजूद से रुस्वाइयाँ नहीं जातीं ।।
जरा सँभल के रहो दुश्मनों की फितरत से ।
मिले तो हाथ मगर खाइयां नहीं जातीं ।।
मैं भूल जाऊं सभी जख़्म कोशिशें हैं मेरी ।
मगर ज़िगर की ये मजबूरियां नहीं जातीं ।।
चले गए हैं मेरी जिंदगी से जब से वो ।
मेरे दयार से खामोशियाँ नहीं जातीं ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 तेजवीर सिंह जी सप्रेम आभार
आ0 राम अवध विश्वकर्मा जी सप्रेम आभार
आ0 विजय निकोरे साहब तहे दिल से आभार
आ0 मुहम्मद आरिफ़ साहब तहे दिल से शुक्रिया
आ0 सुरेंद्र नाथ सिंह कुश क्षत्रप जी सप्रेम आभार ।
आद0 नवीन जी अच्छी ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद। सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
नए निज़ाम से उम्मीद और क्या करना ।
चमन से आज भी दुश्वारियां नहीं जातीं ।।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है। बधाई
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,
बहुत कसे हुए अश'आरों से सजी ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के ब थ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
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