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हमनें यूँ ज़िन्दगानी का नक्शा बदल लिया
देखा तुझे जो दूर से रस्ता बदल लिया
तुमने भी अपने आप को कितना बदल लिया
नज़रों की ज़द में आते ही चहरा बदल लिया
जब इस सराय फानी का आया समझ में सच
हमनें भरी दुपहर में कमरा बदल लिया
दादी की जलती उंगलियों का दर्द अब नहीं
हामिद ने इक खिलौने से चिमटा बदल लिया
दीवानगी भी ,शाइरी भी,दिल भी, शहर भी
तुमको भुलाने के लिए क्या क्या बदल लिया
कांपी तमाम रात यूँ मुफ़लिस के जिस्म में
बेज़ार होके रूह ने चोला बदल लिया
'अहसास' उसने हमको भुलाया है इस तरह
मिट्टी के इक मकान में घर था,बदल लिया
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय ब्रज जी
आदरणीय कुशक्षत्रप जी
आदरणीय इंसान जी
आदरणीय कबीर साहब
आदरणीय मुसफिर जी
हार्दिक आभार
ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रिया
सादर
आ. भाई मनोज जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब मनोज कुमार 'अहसास' साहिब आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
भाई मनोज जी आदाब। ग़ज़ल का बहुत अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करे जी।
मतले में जो की जगह तो करे तो कैसा रहेगा? गुणीजनों की राय लीजिये इस पर।
हमनें यूँ ज़िन्दगानी का नक्शा बदल लिया
देखा तुझे तो दूर से रस्ता बदल लिया
मक़्ता का सानी अभी मेहनत मांग रहा है।।
सादर ।
आद0 मनोज जी सादर अभिवादन। बढिया ग़ज़ल कही आपने
शैर दर शैर मुबारक आपको।
बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई आदरणीय मनोज जी..किस शेर की तारीफ करूँ..सभी एक से बढ़कर एक..
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