आत्मा के
कल-कल छल-छल जल में
शब्दों की ध्वनियाँ तैरती है
देर तक गूँजती रहती है
तब बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के मुहाने की छाती पर
नंगे पैर खड़े होकर चलना
समझौतों के ताबीज पहनना
मक्कारी का मंत्र जाप करना
रोज़ आत्मा का गला घोटना
खंडित-खंडित होकर
अखंडित समाधि बनना
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के रिश्तों में जीना
जहाँ रिश्तों में डाका पड़ा है
ख़ूनी हाथ अट्टहास करते हैं
अकेलेपन की साँसें थम गई है
रातरानी को लकवा हो गया है
गुलाब सारे लहू पी रहे हैं
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के पर्यावास पर चर्चा करना
आँगन के बरगद की खोह में
ज़हरीले नागों ने बना ली है बस्ती
पक्षियों के कलरव की हो गई है हत्या
तोता-मैना , कबूतर के फेफड़ों में
जमा हो गई है कार्बन
किंगफिशर नज़र नहीं आते
कठफोड़वा को नहीं मिलता ठूँठ
मोबाइल टॉवर के ऊँचे मचान पर
चिड़िया करती है नाकाम कोशिश
हाई रेडिएशन ने कैंसर को ज़िंदा कर दिया है
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग की कविता को पढ़ना-सुनना
जहाँ कविता की नदी सूखकर रेत हो गई है
गर्म रेत पर सौंदर्यानुभूति तड़पती है
भावों-विचारों को चक्कर आते हैं
प्रतीकों और बिम्बों के पैर लड़खड़ाते हैं
कैनवास की हड्डियाँ निकल गई हो
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के चरित्र को बेशर्म आँखों से देखना ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब जी। बेहतरीन कविता।
मुहतरम जनाब आरिफ़ साहिब आदाब, दुनिया के हालात पर प्रहार करती ज़बरदस्त रचना हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें ।जनाब सुरेन्द्र नाथ साहिब की बात का संज्ञान लीजियेगा।
रचना सराहना के लिए बहुत-बहुत आभार आदरणीय सुरेंद्रनाथ जी ।
रचना सराहना के लिए बहुत-बहुत आभार आदरणीय मोहित मुक्त जी ।
आद0 मोहम्मद आरिफ जी सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन भाव सम्प्रेषण के लिए आपको दिल से बधाई देता हूँ।
अतुकांत कविता में तुकांत सयास नहीं होने चाहिए और किसी शब्द का दुहराव यथासम्भव न हो, यहीं प्रयास होना चाहिए। इस लिहाज से इस रचना को एक बार देखियेगा।। सादर
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