देख दुर्दशा यार वतन की, गीत रुदन के गाता हूँ
कलम चलाकर कागज पर मैं, अंगारे बरसाता हूँ
कवि मंचीय नहीं मैं यारों, नहीं सुरों का ज्ञाता हूँ
पर जब दिल में उमड़े पीड़ा, रोक न उसको पाता हूँ
काव्य व्यंजना मै ना जानूँ, गवई अपनी भाषा है
सदा सत्य ही बात लिखूँ मैं, इतनी ही अभिलाषा है
आजादी जो हमे मिली है, वह इक जिम्मेदारी है
कलम सहारे उसे निभाऊं, ऐसी सोच हमारी है
काल प्रबल की घोर गर्जना, लो फिर मैं ठुकराता हूँ
देख दुर्दशा यार वतन की, गीत रुदन के गाता हूँ
टूट रहे परिवार यहाँ पर, यह कैसी लाचारी है
रिश्तों में एकाकी पन की, फैल रही बीमारी है
वक़्त नहीं है पास किसी के, औरों के घर जाने का
दौर कहीं वो चला गया सब, हँसने और हँसाने का
मात पिता हैं तन्हा जीते, बच्चे बसे विदेशों में
और निभाये जाते रिश्ते, अब केवल संदेशो में
भागमभाग बना जीवन जो, उसको आज बताता हूँ
देख दुर्दशा यार वतन की, गीत रुदन के गाता हूँ
ह्रास हुआ है नैतिकता का, बच्चे वृद्ध युवाओं में
रावण भी अब दिख जाते हैं, सन्यासी बाबाओं में
झौया भर हैं बाल बढाये, अरबों के व्यापारी हैं
ओढ़ दुशाला राम नाम का, देखों कई मदारी हैं
मुख से बोले राम राम पर, अंदर से सब काले हैं
धरम करम सब बेच रहे जो, गोरख धन्धे वाले हैं
नैतिकता के अवमूल्यन का, मैं आभास कराता हूँ
देख दुर्दशा यार वतन की, गीत रुदन के गाता हूँ
फट जाती धरती की छाती, पत्थर भी तब रोते है
बिन खाये जब किन्ही घरों के, बच्चे बूढ़े सोते हैं
जिस्म यहाँ पर बेबस बिकता, नहीं मिले जब खाने को
तार तार होती मर्यादा, तब दो रोटी पाने को
कहीं गरीबी झलक रही है, फ़टी हुई इक साड़ी में
कहीं विलासी जीवन सजता, बैठ लग्जरी गाड़ी में
दोनों के जीवन मे अंतर, सबको आज दिखाता हूँ
देख दुर्दशा यार वतन की, गीत रुदन के गाता हूँ
कहीं दामिनी तड़प रही है, पाप अधम के घेरे में
कोई बच्ची माँ बन जाती, है समाज अंधेरे में
काली उजली रातो में अब, चीख सुनाई देता है
नहीं सुरक्षित माँ बहने पर, किसे दिखाई देता है
अब तो नन्हे बच्चे भी हैं, खेल रहे हथियारों से
उम्र खेलने की है जिनकी, गुड्डे गुड़ियों तारों से
संस्कारो के नित्य पतन पर, मै तो रोष जताता हूँ
देख दुर्दशा यार वतन की, गीत रुदन के गाता हूँ
हैं दहेज में बाप माँगते, धन दौलत की पेटी को
मार रहे हैं आज कोख में, जो अपनी ही बेटी को
देश जहाँ नारी की महिमा, निशदिन गाई जाती है
मीरा लक्ष्मी अनुसुइया की, कथा सुनाई जाती है
आज उपेक्षा की पीड़ा से, वहीं बिलखती नारी है
जीवन का आधार यहाँ जो, जिससे दुनिया सारी है
गौर कीजिए आप सभी अब, बात यहीं दुहराता हूँ
देख दुर्दशा यार वतन की, गीत रुदन के गाता हूँ
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अच्छी रचना हुई है आदरणीय सुरेंद्र जी | हार्दिक बधाई |
जीवन के पहलुओं से रु बरु कराती सुन्दर रचना हुई है ,जनाब सुरेन्द्र नाथ साहिब,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
इस अचछी रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई, आ० सुरेन्द्र जी।
इसे ताटंक छंद पर लिखा है मैंने आरिफ भाई
आदरणीय सुरेंद्रनाथ जी आदाब,
मेरे कहने का आशय यह है कि गीत की कुछ तो मापनी आपने तय की होगी । वह मापनी (छांदसिक विधान) क्या है ? मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि यह गीत है मगर किस छांसिक विधान के अंतर्गत ?
आद0 मोहम्मद आरिफ जी सादर अभिवादन। आभार रचना पर समय देने के लिए। यह गीत है बन्धु
आद0 तेजवीर जी सादर अभिवादन। रचना पर बेहतरीन प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार
आदरणीय सुरेंद्रनाथ जी आदाब,
बहुत ही आक्रोश भरा गीत है मगर आपने छांदसिक विधान नहीं लिखा । विस्तृत टिप्पणी हेतु फिर आता हूँ ।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'जी।लेखकीय जिम्मेवारी का पूर्ण निर्वहन करते हुये एक बेहतरीन,समसामयिक और कटाक्षपूर्ण गीत।
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