2122 1122 22
पहले ग़लती तो बता दे मुझको
फिर जो चाहे वो सज़ा दे मुझको
oo
सारी दुनिया से अलग हो जाऊँ
ख़ाब इतने न दिखा दे मुझको
oo
हो के मजबूर ग़म-ए-दौरां से
ये भी मुमकिन है भुला दे मुझको
oo
या खुदा वक़्त-ए-नज़ा से पहले
उसका दीदार करा दे मुझको
oo
साथ चलना हो 'रज़ा' नामुमकिन
ऐसी शर्तें न सुना दे मुझको
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आपने 'वक़्ते आख़िर के साथ "है" लिया है,मेरा ऐतिराज़ उस पर है, और 'वक़्ते आख़िर ही लेना है तो मिसरा यूँ होगा:-
'वक़्त-ए-आख़िर सुकून कुछ तो मिले'
आ. भाई सलीम जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब, लफ्ज़ "आख़िर वक़्त "है जिसका मतलब नज़अ का वक़्त है , जो ख़ुद मुकम्मल लफ्ज़ है जिसमें इज़ाफत की ज़रूरत नहीं मगर मैं ने इज़ाफ़त के साथ " वक़्ते आख़िर" लिया है । इस लिए मेरे हिसाब से मिसरा सही है ।
हार्दिक बधाई आदरणीय सलीम रज़ा रीवा साहब जी।बेहतरीन गज़ल।
सारी दुनिया से अलग हो जाऊँ
ख़ाब इतने न दिखा दे मुझको
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,ग़ज़ल में क़ाफ़िया बन्दी के अलावा कुछ नहीं है,बहरहाल,इसके लिए बधाई लें ।
5वें शैर का ऊला मिसरा यूँ कर लें:-
'वक़्त आख़िर है सुकूँ कुछ तो मिले'
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब,'वक़्ते आख़िर है सुकूँ कुछ तो मिले'
आपके सुझाये इस मिसरे में 'वक़्त'शब्द में इज़ाफ़त लगने के बाद "है"शब्द की ज़रूरत नहीं,और अगर 'है' शब्द रखा है तो इज़ाफ़त हटाना होगी,और मिसरा यूँ होगा :-
'वक़्त आख़िर है सुकूँ कुछ तो मिले'
जनाब सलीम रज़ा साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
शेर2 का सानी मिसरा यूँ करना सही होगा "शर्त ऐसी न सुना दे मुझको " ।
शेर5 उला मिसरा बह्र में नहीं , "यूँ कर सकते हैं ।"वक़्ते आखिर है सुकूं कुछ तो मिले"। आखरी शेर नात का है ,मेरा मश्वरा है कि ग़ज़ल में ऐसे शेर न कहें।
खूब सुन्दर
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