महामूर्ख - लघुकथा –
"दुर्योधन, तुम इस विश्व के सबसे बड़े मूर्ख हो, महामूर्ख"।
"माते, आप यह कैसी भाषा बोल रही हैं? मैं तो सदैव ही आपका सबसे प्रिय पुत्र रहा हूँ"।
"मगर आज तुमने अपने आप को महामूर्ख प्रमाणित कर दिया"।
"माँ, आप इस साम्राज्य की महारानी हैं।मैं आपका अपमान नहीं करना चाहता , लेकिन आपकी यह कटु वाणी मेरी सहनशीलता को धैर्यहीन बना रही है"।
"दुर्योधन, तुमने अपनी माँ के आदेश की अवज्ञा करके अपनी मृत्यु को स्वंय दावत दी है"।
"मैंने जो कुछ भी किया है, आपकी आज्ञानुसार ही किया है"।
गाँधारी ने रुआंसे स्वर में भर्राये गले से दुर्योधन को उसकी भयंकर भूल का स्मरण कराया,"पुत्र, मैंने तुम्हें निर्वस्त्र होकर अर्थात संपूर्ण शरीर से जन्मजात नंगा होकर आने को कहा था। जिससे कि मेरे आँखों से पट्टी हटाते ही तुम्हारा संपूर्ण तन वज्र का हो जाता, फ़िर तुम्हें कोई भी, किसी भी अस्त्र शस्त्र से नहीं मार पाता"।
"परंतु यह तो केवल केले के पत्ते हैं। वस्त्र तो नहीं"।
"वत्स, मेरी दृष्टि तो केले के पत्तों से भी बाधित हो गयी ना"।
"ओह माँ, वह छलिया कृष्ण, फिर छल कर गया | उसने कहा था कि माँ के सम्मुख इस आयु में निर्वस्त्र जाओगे, लज्जा नहीं आयेगी। गोपनीय अंगों पर वस्त्र के स्थान पर छाल या पत्ते भी तो प्रयोग कर सकते हो। माँ की बात भी रह जायेगी और तुम्हारी इज्जत भी बनी रहेगी"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
गुणीजनों से सहमत ।
इसे मौलिक लघुकथा क्यूँ माना जाय जब कि यह महाभारत का एक प्रसंग है?
मुहतरम जनाब तेजवीर साहिब ,महाभारत की याद ताज़ा हो गई ,सुन्दर लघुकथा ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
RAHILA G KI BAAT SE SAHMAT HUN
आदरणीय सर जी ! ये तो ज्यौं का त्यौ महाभारत का सीन है। इस लघुकथा का उद्देश्य मुझे समझ नहीं आया। पूणतः क्षमा सहित।सादर
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