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जब से गये हैं आप किसी अजनबी के साथ ।
यूँ ही तमाम उम्र कटी बेखुदी के साथ ।।
कुछ वक्त आप भी तो गुजारो मेरे करीब ।
मत जाइए जनाब अभी बेरुखी के साथ ।।
कहने लगे है लोग उसे माहताब अब ।
मिलता नहीं जो मुझको यहाँ रोशनी के साथ ।।
है मुतमइन ही कौन यहां ख्वाहिशों के बीच ।
लाचारियाँ दिखीं है बहुत आदमी के साथ ।
तन्हाइयों का वक्त तो मिलना मुहाल है ।
चलती है रोज फ़िक्र यहां ज़िन्दगी के साथ ।।
गम से निज़ात कौन अभी पा सका हुजूर ।
रहते तमाम लोग यहाँ मयकशी के साथ ।
डूबा हुआ है शह्र अना के खुमार में ।
मिलते कहाँ हैं लोग यहां बन्दगी के साथ ।।
मफ़हूम है जुदा ये ग़ज़ल भी है कुछ जुदा ।
शायद कलम चली है कोई ताजगी के साथ ।।
खिलने का वक्त कौन दे भौरे हैं बद मिजाज ।
क्या हो रहा है आज चमन में कली के साथ ।।
यूँ तो शराब खूब बटी मैकदे में आज ।
होती नहीं नसीब मुझे तिश्नगी के साथ ।।
--- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 मु0 आरिफ साहब सादर धन्यवाद सर । अवश्य प्रयास करूंगा ।
आ0 कबीर सर सादर नमन मिसरा में ऑडिट करके परिवर्तन अवश्य करता हूँ ।
आ0 बसन्त कुमार शर्मा जी सादर आभार
बेहतरीन गजल के लिए आपको बहुत बहुत बधाई
आ. भाई नवीन जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
5वें शैर के सानी मिसरे में "फ़िक्र" शब्द स्त्रीलिंग है, मिसरा बदलने का प्रयास करें ।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,
लाजवाब अश'आरों से सुसज्जित बेहतरीन ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी अमूल्य राय साझा करेंगे ।
कभी अन्य रचनाओं पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराएँ ।
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