बूढ़ी माँ ...
अपनी आँखों से
गिरते खारे जल को
अपनी फटी पुरानी साड़ी के
पल्लू से
बार बार पौंछती
फिर पढ़ती
गोद में रखी
रामायण को
बूढ़ी माँ
व्यथित नहीं थी वो
राम के बनवास जाने से
व्यथित थी वो
अपने बिछुड़े बेटे के ग़म से
जिसका ख़त आये
ज़माना बीत गया
चूल्हा रोज जलता
उसके नाम की
रोटी भी रोज बनती
रोज उसे खिलाने की प्रतीक्षा में
रोटी हाथ में लिए लिए
सो जाती
बूढ़ी माँ
राम की रामायण में
राम लौट आया था
जाने मेरा राम
कब लौटेगा
लौटेगा भी या नहीं
या फिर लौटेगा तो
इस प्रतीक्षा करती
कौशल्या के
चले जाने के बाद
यही सोचती
रामायण में डूबी
कभी
गीली आँखों से
धुंधली अक्षरों को पढ़ती
तो कभी
खुले द्वार पर
अपनी श्वास और
प्रतीक्षा की दूरी को मिटाती
अधमुंदी आँखों में
सो जाती
बूढ़ी माँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बृजेश जी आपकी मन मुदित करती मधुर प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब आदाब सृजन आपकी मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभारी है।
आदरणीय तेज वीर सिंह जी सृजन को आपकी आत्मीय प्रशंसा से पोषित करने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब, सृजन को अपनी मनोहारी प्रशंसा से अलंकृत करने का दिल से आभार।
उफ्फ्फ...क्या भाव भरे हैं..बेहतरीन
आद0 सुशील सरना जी सादर अभिवादन। बहुत बढ़िया और मार्मिक रचना बूढ़ी माँ। बहुत खूब। इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब,
बेटे की प्रतीक्षा में एक माँ की बेचैनी को दर्शाती बेहतरीन कविता । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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