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इक दूजे के संग ...

इक दूजे के संग ...
 
चक्षु को चक्षु से देखा
करते हमने द्वंद
हाथों में उलझे
हाथ देखकर
हम तो रह गए दंग
आँख बचा कर
कब बाला ने
अधरों का छोड़ा रंग
लाज शरम को मारो गोली
अब इज़हार हुआ दबंग
ये न पूछो
इस युग में
परिधान हुए क्यूँ तंग
आधुनिकता बेकार अगर न
झांकें कपड़ों से अंग
मृग नयनी के
नयन नशीले
हाला जैसा तन
स्वप्न लोक में करता भ्रमण
अब सतरंगी मन
तू मैं
मैं तू
करते करते
मस्ती हुई मलंग
बैठ बाईक पर
दौड़ चले यंग
इक दूजे के संग
 
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on April 7, 2018 at 2:26pm

आदरणीय  बृजेश कुमार 'ब्रज' जी सृजन को मान देने का दिल से आभार।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 4, 2018 at 5:20pm

वाह आदरणीय अच्छी कविता लिखी..बधाई

Comment by Sushil Sarna on April 4, 2018 at 12:55pm

आदरणीय विजय निकोर साहिब, सादर प्रणाम .... रचना आपकी नज़र को अच्छी लगी, सृजन सार्थक हुआ। हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on April 3, 2018 at 3:55pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... प्रस्तुति को अपनी मन मुदित करती प्रतिक्रिया से शोभित करने का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on April 3, 2018 at 3:55pm

आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का आभारी है।

Comment by Sushil Sarna on April 3, 2018 at 3:55pm

आदरणीय मो.आरिफ साहिब, आदाब ... सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से शोभित करने का दिल से आभार।

Comment by Samar kabeer on April 2, 2018 at 12:43pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,उम्दा कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on April 1, 2018 at 5:42pm

आदरणीय सुशील सरना जी सादर अभिवादन आपकी रचना पढ़कर मन प्रसन्न हुआ बहुत बहुत बधाई आपको इस आकर्षक रचना पर 

Comment by Mohammed Arif on April 1, 2018 at 5:27pm

आदरणीय सुशील सरना जी आदाब,

                              बहुत ही सुंदर और ध्यानाकर्षण कराती कविता । यदि इन काफ़ियों का इस्तेमाल किया जाय तो एक अच्छी ग़ज़ल तैयार हो सकती है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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