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गम-ए-दिल उठाऊँ,अज़ीमत नहीं है
मगर बच निकलने की सूरत नहीं है
सुनो बख़्श दो मुझको वादों वफ़ा से
यहाँ अब किसी की जरुरत नहीं है
परेशां रहा हूँ मैं अहल-ए-सितम से
तुम्हारी भी क़ुर्बत की नीयत नहीं है
ओ महताब तू है तो ग़ज़लें हैं रौशन
वगरना सुख़नवर की अज़्मत नहीं है
सरेआम 'ब्रज' की ग़ज़ल गुनगुनाना
ये है और क्या गर मुहब्बत नहीं है
अज़ीमत-इरादा
अहल-ए-सितम-तानाशाह
क़ुर्बत-नजदीकियां
महताब-चन्दा
सुख़नवर-लेखक
अज़्मत-इज्जत
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय शर्मा जी...
आदरणीय बृजेश जी अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
सरे शाम 'ब्रज' की ग़ज़ल गुनगुनाना
ये है और क्या गर मुहब्बत नहीं है
वाह वह क्या कहने , शानदर गजल हुई आदरणीय
आदरणीय सतविंद्र जी शुक्रिया..
हार्दिक आभार आदरणीय नीलेश जी..सादर
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर सर...हाँ गलती तो हुई है...इसे यूँ करता हूँ..सरे शाम 'ब्रज' की ग़ज़ल गुनगुनाना..
बेहतरीन गजल
आ. बृजेश जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है, बहुत बहुत बधाई
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
मक़्ते में 'सुबह' ग़लत है,सही शब्द है "सुब्ह"जिसका वज़्न 21 है, और आपने 12 ले लिया है,देखिये।
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