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कल, आज और कल ....

वर्तमान का अंश था
जो बीत गया है कल
अंश होगा वर्तमान का
आने वाला कल
वर्तमान के कर्म ही
बन जाते हैं दंश
वर्तमान से निर्मित होते
सृजन और विध्वंस
वर्तमान की कोख़ में
सुवासित
हर पल के वंश
वर्तमान से युग बनते
युग में कृष्ण और कंस
कागा धुन निष्फल होती
मोती चुगता हंस
चक्र सुदर्शन कर्म का
करे निर्धारित फल
कर्म बनाएं वर्तमान को
कल, आज और कल


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on May 5, 2018 at 2:48pm

आदरणीय हरिओम श्रीवास्तव जी सृजन के भावों पर आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया का दिल से आभार।

Comment by Hariom Shrivastava on May 4, 2018 at 5:45pm

वाह,वाहहह,लाजवाब रचना

Comment by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 5:24pm

आदरणीया बबितागुप्ता जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 5:24pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन की प्रशंसा का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 5:23pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब .... सृजन पर आपकी मन मुदित करती प्रशंसा का दिल से आभारी है।

Comment by babitagupta on May 4, 2018 at 1:18pm

आदरणीय सर जी,आपने चंद पंक्तियों के माध्यम से भाग्य भरोसे बैठने वालो को संदेश दिया हैं कि कर्म ही प्रधान हैं.बधाई स्वीकार कीजिएगा.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 4, 2018 at 11:09am

आ. भाई सुशील जी, यह रचना भी उत्तम हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on May 3, 2018 at 5:52pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब, बहुत उम्दा और गम्भीर कविता, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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