सतवंत पहले से ही मेरे साथ इस के बारे में बात कर चूका था। लेकिन जिस दिन से उसने मुझसे बात की थी, कोई भी पुराना साथी उसके पास नहीं आया और न ही वह किसी को मिलने गया था। मगर उस दिन से घर के लोगों ने उस से बात करना बंद कर दी थी ।
हद तो उस रोज़ हो गई जब इक दिन बाप हाथ में जूती ले कर सतवंत के पीछे दौड़ पड़ा और ये ध्यान भी नहीं किया के लोग क्या कहेंगे, तब सतवंत को लगा था कि इस जिंदगी का क्या फायदा जब बीस को पार कर चुके बच्चे पे माँ बाप को यकीन न रहे , तब कोई और क्या करे ? बड़े भाई से सतवंत ने फोन पर बात करते हुए कहा ।
आज फिर फोन कॉल जब पिता जी की आई कि सतवंत कोई भी खतरा मोल ले सकता है, तुम आ घर आ जाओ , उसे समझा दो, वर्ना हमारे से तो वह कोई बात नहीं करता है ।
इक बार तो मुझे बहुत गुस्सा आया, काम छोड़ रोज़ रोज़ कौन जाए, मगर मैने गुस्से को दबाते हुए कहा, "उस दिन उसने मुझे फोन पर मुझे आश्वासन दिया था, कि वह कोई भी ऐसा वैसा काम नहीं करता है।"
जब दुसरे दिन मैं घर पहुंचा तो सभी तरफ सुनसान पसरी हुई थी, सतवंत बिना बत्ती जलाए सोफे पे बैठा था, जब उस ने मेरी आवाज़ सुनी तो सर ऊपर कर मेरी तरफ देखने लगा, उसके लब्ब खुश्क हुए थे, जब मैं कमरे में दाखल ही हुआ तो माँ ने कहना शुरू कर दिया, "पुत्त ! कल से इसने कुछ नहीं खाया” हमारा क्या कसूर है, अगर बाप बेटे में नहीं बनती तो” माँ कहती चली जा रही थी ।
"हमारा तो घर बर्बाद हो गया, आप ही कुछ हल निकालें” माँ ने फिर से रोना शुरू कर दिया।
“मैंने तो डेडी से कहा था मैं कुछ नहीं लेता न ही मैं किसी पुराने साथी से मिलता हूँ, वह मानते ही नहीं ” सतवंत ने बहुत मुश्कल से कुछ शब्द कहने की कोशिश की।
"इस ने तो हमें बर्बाद कर दिया, अंदर आते ही बाप ने चीकना शुरू कर दिया"
“मैं पागल हाँ जो बोलता रहता हूँ” पिता ने फिर कहा ,
"तो हम भी पागल नहीं मैंने कहा, इस की जांच करवा देता हूँ " अगर कुछ भी न निकला तो फिर........ ।
इस बात पर बाप को मैंने पहली बार झुकते देखा था, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था ।
मगर आज की बात चीत के बाद वह बिलकुल ही बदल गए लगे, खुद को शर्मिंदा महशुश करने लगे, पता नहीं क्यूँ उस को मेरी बातों पे यकीन होने लगा था ।
"तुमने सही कहा, मैं डर गया था, यह देर तक घर नहीं आता था मैंने सोचा .... ।
कुछ दिन के बाद फिर डेडी का फ़ोन आया, "अब ठीक है, पुत्त तुम ठीक कहते थे, अब मुझे यकीन हो गया है।कि............।
ये मेरी बहुत बड़ी भूल थी, ये कहते हुए डेडी की आवाज़ भारी होने लगी, मगर मैंने देर तक फ़ोन को कान पे लगाए रखा।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया पेशकश आदरणीय मोहन बेगोवाल साहिब।
पिता पुत्र के रिश्ते पर आधारित कथा ,वे एक दूसरे की परवाह करते है,एक दूसरे को समझते है पर कह नही पाते ।कथा के लिये बधाई आद० मोहन बेगोवाल जी ।
आदरणीय सर जी आपने लघु कथा के माध्यम से भटकती युवा पीढ़ी के प्रति माता-पिता की भ्रमित चिंता को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया हैं,बधाई स्वीकार कीजिएगा.
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, नमस्कार । बहुत अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति पर बधाई ।
जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब,बहुत अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बेहतरी व उम्दा और विचारोत्तेजक रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मोहन बेगोवाल साहिब।
आपकी कथा का एक अलग ही फ्लेवर होता है। एक युवा जो नशा छोड़ चुका है पर परिवार वाले उसका विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। बहुत सरल पर प्रभावशाली ढंग से ऊभारा है आपने इस कथ्य को। हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी
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