(चौथे शैर में तक़ाबल-ए-रदीफ़ नज़र अंदाज़ करे)
नसीहत जो बुज़ुर्गों की न मानी याद आएगी
हमें ता उम्र उनकी सरगरानी याद आएगी
मियाँ मश्क़-ए-सुख़न कर लो नहीं ये खेल बच्चों का
ग़ज़ल कहने जो बैठोगे तो नानी याद आएगी
ज़माने भर की आसाइश के जब सामाँ बहम होंगे
तुझे माँ-बाप की क्या जाँ फ़िशानी याद आएगी
जुड़ी होंगी मज़ालिम की बहुत सी दास्तानें भी
हवेली गाँव की जब ख़ानदानी याद आएगी
क़वाफ़ी जब भी आएँगे ग़ज़ल में ज़िन्दगानी के
मुझे तब "नूर"की वो 'कूड़ेदानी' याद आएगी
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सरगरानी--नाराज़गी
मश्क़-ए-सुख़न--ग़ज़ल अभ्यास
आसाइश--आराम
जाँ फ़िशानी--मिहनत
मज़ालिम--अत्याचार
"नूर"--निलेश 'नूर'
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'समर कबीर'
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
जनाब मनोज कुमार अहसास साहिब आदाब, ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
बहुत खूब ग़ज़ल हुई है आदरणीय कबीर साहब
आदरणीय नूर साहब को भी बधाई कि कबीर साहब की ये ग़ज़ल जब जब पढ़ी जाएगी संदर्भ के लिए आपकी ग़ज़ल भी पढ़ी जाएगी
जनाब मोहम्मद आरिफ साहब वैसे तो मुझे नही लगता कि आपने जो सवाल पूछे हैं उनका जवाब आपको नही पता होगा आप कन्फर्म करने के लिए पूछ रहे होंगे
बड़े ग़ज़लकार फिल्मी धुनों पर गाकर लिखना अच्छा नही समझते उनका मानना ये होता है कि यदि गाकर लिखा जाए तो शब्द आसानी से लय पर चढ़ जाते हैं और ग़ज़ल में गहनता नही आ पाती
पर यें गीत मेरे ख्याल से इसी बहर में हैं
न झटको जुल्फ से पानी ,बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है, किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा है आदि आदि
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,मेरे और जनाब निलेश जी के बीच कोई आईपीएल नहीं चल रहा है,निलेश जी रोज़ एक ग़ज़ल कहते हैं और मैं कभी कभी,हाँ जब मैं उनकी उम्र का था तब मैं भी ख़ूब ग़ज़लें कहता था,और आईपीएल एक खेल है,और ग़ज़लें कहना खेल नहीं ।
1-इस ग़ज़ल की बह्र का नाम है,'हज़ज मुसम्मन सालिम-और इसके अरकान हैं,मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन ।
2-ग़ज़ल कहने का कोई आसान तरीक़ा नहीं,'ग़ज़ल कहने जो बैठोगे तो.. ।
3-ग़ज़ल के अरकान होते हैं,जो ऊपर लिख दिये हैं,लय से क्या मतलब?
4-इस ग़ज़ल की फ़िल्मी धुन का मुझे पता नहीं ।
सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब आदाब,
लगता है आपके और आदरणीय नीलेश जी के बीच इस मंच पर ग़ज़लों का lPL चल रहा है । अच्छा है , ख़ुदा करें यूँ ही चलता रहे और हम जैसे छोटे क़लमकर्मियों को कुछ न कुछ तो सीखने को मिलें ।
इस ग़ज़ल के संदर्भ में मेरे कुछ सवाल हैं :-
(1) इस ग़ज़ल की बह्र और अर्कान क्या है ?
(2) अगर इस बह्र पर मैं कोई अन्य ग़ज़ल लिखना चाहूँ तो आसान तरीक़ा क्या है ?
(3) इस ग़ज़ल की लय क्या है ?
(4) क्या इस ग़ज़ल की कोई फिल्मी धुन है ? अगर हाँ, तो बताइए ।
शानदार, बेजोड़ और बेमिसाल ग़ज़ल के लिए शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
जनाब लक्ष्मण धामी जी आदाब, ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
जनाब राम अवध जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । इस बेहतरीन गजल के लिए कोटि कोटि हार्दिक बधाई ।
आदरणीय समर साहब बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है।
आदरणीय नीलेश जी के साथ
'ग़ज़ल जब भी पढ़ेंगे छेड़खानी याद आयेगी
सादर
मोहतरमा नीलम उपाध्याय जी आदाब,नानी को याद करते करते ग़ज़ल कहने का प्रयास करें ।
ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय समर कबीर साहब, बहुत ही उम्दा गजल । मुबारकबाद काबुल करें ।
"ग़ज़ल कहने जो बैठोगे तो नानी याद आएगी" – बहुत ही सही कहा । मुझे खुद गजल की ज्यादा समझ नहीं है लेकिन पढ़ना अच्छा लगता है ।
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