पाँच बरस तक कुछ न कहेंगे कर लो अपने मन की बाबू ।
बात चलेगी, तो बोलेंगे, अपनी ही थी गलती बाबू ।।
चाँद-चाँदनी, सागर-पर्वत, चाहत कहाँ किसानों की है ?
मुमकिन हो तो इनके हिस्से लिख दो थोड़ी बदली बाबू ।।
खाली थाली, खाली तसला, टूटा छप्पर, चूल्हा गीला,
रोजी-रोटी बन्द पड़ी जब, क्या करना जन-धन की बाबू ।।
जो काशी बन जाए क्योटो, या दिल्ली हो जाए लंदन ।
प्यासा जन बस जल पा जाये, गाँव लगे शंघाई बाबू ।।
अच्छे-दिन, काले-धन की बातें, जुमलें हैं जुमलों की क्या ?
"बाग़ी" भी अब समझ रहा है लेते हो तुम फिरकी बाबू ।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सत्ताधीशों द्वारा ठगी गई भोलीभाली जनता का दुख दर्द बयान करती हुई सार्थक ग़ज़ल कहने के लिये हार्दिक बधाई।
आ. बाग़ी जी,
ग़ज़ल के लिए बधाई... जिसके लिए कही है वो भी हम-काफिया है ;)))))) ....................दी बाबू
बधाई
मेरी ग़ज़ल पर कई बार एसी प्रतिक्रिया आई तो मैं समझी ये नियम ही होगा .खैर नवलेखकों को समझने में आसानी होगी इस दृष्टि से ये बात सही भी है मैं तो आपकी बह्र समझ गई किन्तु जो सीखने की कतार में हैं उनके लिए थोड़ा मुश्किल होगा .एक अच्छी ग़ज़ल के लिए पुनः बधाई आदरणीय .
ग़ज़ल की सराहना हेतु आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी, मेरी पिछली ग़ज़ल पर अरकान लिखने के बाबत बहुत बात हुई, मुझे समझ नही आता कि यह नियम कहाँ लिखा है, जो नियम है सभी "नियम" टैब के अंतर्गत लिखित है ।
आज की सियासत पर जबरदस्त प्रहार किया है आद गणेश जी बहुत खूब .बधाई आपको
आपने नियम के अनुसार ग़ज़ल के अरकान नहीं लिखे आदरणीय
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