अरकान फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
क्या सबब था,किसलिये दुनिया से मैं डरता रहा
सर झुका कर जिसने जो भी कह दिया करता रहा
सी दिया था मेरे होटों को ज़माने ने मगर
ज़िक्र सुब्ह-ओ-शाम तेरा फिर भी मैं करता रहा
ज़िन्दगी के रास्ते में ज़ख़्म जो मुझको मिले
चुपके चुपके प्यार के मरहम से वो भरता रहा
जाते जाते वो मुझे कह कर गये थे इसलिये
लम्हा लम्हा ज़िन्दगी जीता रहा मरता रहा
सादगी की मैंने ये क़ीमत चुकाई उम्र भर
जुर्म कोई और करता दण्ड में भरता रहा
~संतोष_खिरवड़कर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
शुक्रिया आ. गुमनाम जी
खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई.........
आभार आ.लक्ष्मण जी
शुक्रिया आ.महेंद्र जी
धन्यवाद रोहित जी
आ. भाई संतोष जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय संतोष जी, बढ़िया ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. दूसरा शेर और बेहतर हो सकता है.
2. सादगी की मैंने ये क़ीमत चुकाई उम्र भर
जुर्म कोई और करता क़र्ज़ मैं भरता रहा
सादर.
kya baat hai ! Lajavab kavita !
धन्यवाद आ.चौहान जी
शुक्रिया आ.आरिफ़ साहब
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