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पोथा पढ़ना पंडित भूले शुभ मंगल में आग लगी
जो माथे को शीतल करता उस संदल में आग लगी।१।
जहर भरा है खूब हवा में हर मौसम दमघोटू है
पंछी अब क्या घर लौटेंगे जिस जंगल में आग लगी।२।
कैसी नफरत फैल गयी है बस्ती बस्ती देखो तो
जिसकी छाँव तले सब खेले उस पीपल में आग लगी।३।
धन दौलत की यार पिपासा इच्छाओं का कत्ल करे
चढ़ते यौवन जिसकी चाहत उस आँचल में आग लगी।४।
किस्मत फूटी है हलधर की नदिया पोखर सब सूखे
कब देता है पानी जग को जिस बादल में आग लगी।५।
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी।लाज़वाब गज़ल।
कैसी नफरत फैल गयी है बस्ती बस्ती देखो तो
जिसकी छाँव तले सब खेले उस पीपल में आग लगी।३।
आ. भाई भाई बसंत जी, गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।
वाह वाह वाह लाजबाब गजल हुई है आदरणीय , बहुत बहुत बधाई आपको
आ. रक्षिता जी, प्रशंसा के लिए आभार ।
आ. भाई महेंद्र कुमार जी, गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद । मिसरा आपकी सलाहानुसार भी हो सकता है आभार ।
आदरणीय लक्ष्मण जी, आधुनिक युग को दर्शाती बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ ....
दिलीमुबारकबाद क़ुबूल करें।
शानदार ग़ज़ल है आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. बहुत ही अच्छा काफ़िया लिया है आपने और ख़ूबसूरती से निभाया भी है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
//पंछी अब क्या घर लौटेंगे जिस जंगल में आग लगी।// क्या यह मिसरा इस तरह हो सकता है : "पंछी अब क्या घर लौटेंगे जब जंगल में आग लगी।"
सादर.
आ. भाई श्यामनारायन जी, गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार ।
वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय। |
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