"नहीं कमली! हम नहीं जायेंगे वहां!" इकलौती बिटिया केमहानगरीय जीवन के दीदार कर लौटी बीवी से उसकी बदली हुई सी बोली में संस्मरण सुन कर हरिया ने कहा - "हमें ऐसा मालूम होता, तो बिटिया को बेटे की तरह न पालता... आठवीं तक ही पढ़ाता! अपना खेत न बेचता! फंस गई न वो दुनिया के झमेले में, हमें यहां अकेले छोड़के!"
बेहद दुखी पति की बातें वह चुपचाप सुनती रही। हरिया ने अपने आंसू पौंछते हुए आगे कहा - "पुरखों ने जो सब कुछ हमें सिखाया था, बिटिया को भी हमने सिखा दिया था। अरे, खेत में हर किसम के सांप, बिच्छू, नेवले, खरगोश और चमगादड़ों जैसों से बिना किसी मदद के अकेले ही हर मौसम में निबट लेते थे हम! लेकिन आदमियों वाले सांप-बिच्छुओं और मकड़ों से बिटिया कैसे ख़ुद को बचा पायेगी? यही सोच-सोच कर परेशान हो रये हैं, कमली!"
"तुम फिकर न करो! ज़िन्दगी जी रई है नये ज़माने जैसी! ख़ूब पैसा कमा रई है! आगे की बड़ी पढ़ाई भी कर लई है! मेटरो तो क्या, बड़े-बड़े हवाई जहाजन में सैर कर लेती है और अपने शौक़ पूरे करके भी हमें भी ढेर सारा पैसा हर महीने भेज देती है! और का चईये?" इतना कहकर कुछ इतरा कर बोली- "तुमई पे गई है! तुम पे भी तो कित्ती छोरियां मरती रहीं ... और तुम भी किस हद तक गये! का हमें नईं मालूम? कुछ कहा हमने तुमसे कभी?"
"तो क्या जवान बिटिया को ऐसई बड़े शहरन की हवा में उड़न दें.. शादी कब करहो ऊकी... मना कर देत है ससुरी हर बार!"... और सुनो.. कोई कह रहा था कि आज पिता दिवस है? बिटिया ने हमसे फोन पे बात तक नहीं करी आज भी!"
"होटलन में अपने बॉस गोड फादर के साथ नये ज़माने की चीज़ें खा रई होगी! घूम रई होगी! आजकल सब करना पड़ता है लिमिट में!" कमली ने हरिया के देसी अधनंगे बदन पर नज़र डालते हुए कहा - "हम जैसे थोड़ी ई गांव में सड़ रही वो! इत्ता बढ़िया मकान बनवा दिया उसने! फिर भी तुम टट्टी करने लौटा लेके ही बाहर जाते हो!"
"तुम का जानो आक्सीजन मिलत है जंगल में मुफत की! पेड़ और आक्सीजन के लाने बड़े शहर वाले तरसत हैं! हम न जायेंगे उन मशीनों के बीच में!" इतना कहकर अपने ठोस बदन से कमली को चिपका कर उसने प्यार से कहा - "हमरी मुफत की आक्सीजन, क्या तुम्हें भी उस बड़े शहर की हवा लग गई ब्यूटी पार्लर जाके! मेट्रो-हवाई जहाजन में घूम-घूम के?"
"हओ, ख़ूब सैर करायी बिटिया ने! हमें सब जगा ले गई! अपने साहब लोगन को फ्लैट में बुलवाकर हमें मिलवाया भी!"
"तभईं कछु बदली-बदली सी लग रई हो! कौनऊं मुफत की आक्सी्जन चड़वा लई या बोतल कौनऊं?"
"काहे को मज़ाक करत हो? हम तो ठहरे देसी सीरत के! बिटिया आज की मोड़ी है! जी लेने दो बड़े शहरन की ज़िंदगी! न जंची तो ख़ुद ही आ जैहे यहां की खुली हवा में सांस लेवे!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मेरी इस अभ्यास रचना पर समय देकर हौसला अफ़ज़ाई करते हुए अपने विचार सांझा करने हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय : Samar kabeer साहिब, Neelam Upadhyaya साहिबा, Rakshita Singh साहिबा, vijay nikore साहिब, Tasdiq Ahmed Khan साहिब, तथा जनाब Mahendra Kumar
साहिब।
बढ़िया लघुकथा है आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
जनाब शहज़ाद उस्मानी साहिब आ दाब, ज़बर्दस्त और उम्दा la
लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
अच्छी लघुकथाएँ आप में समाई हैं।हार्दिक बधाई।
आदरणीय उस्मानी जी नमस्कार,
ग्रामीण भाषा से सुसज्जित बहुत ही सुन्दर लघुकथा ...
हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय उसमानी जी, नमस्कार । अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति । हार्दिक बधाई ।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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