कलम को चुप-चाप और उदास बैठे देख बारूद ने पूछा," क्या बात है बहन?"
"कुछ नहीँ! तुम फिर आ गए? चले क्यों नहीं जाते... कह तो दिया तुमसे अब मैं तुम्हे स्वीकार नहीं करूंगी।" गुस्से से कलम बड़बड़ाई।
" मेरे बिना तुम्हारा कोई अस्तित्व ही नहीं हैं, समझीं ! तुम्हें मेरा स्वीकार करना ही होगा।" अट्टहास लेते हुए बारूद ने अपनी अहमियत जतायी।
" नहीं कभी नहीँ ! तुम बदल गए हो अब वो बात नहीं रही, याद करो एक समय वो था जब बिस्मिल की कलम से तुमने यह लिखवाया था : सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में हैं। तुम्हारी बारूद से निकले धुंवे ने भारतभूमि नभ् भी गुंजायमान हो गया था।
तुम्हारे भीतर देशप्रेम के जज्बे ने ' तिलक ' को 'केसरी' अख़बार निकलवाने के लिए मजबूर किया था और सुभाष के मुख से ' तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हे आज़ादी दिलवाऊंगा' जैसे नारों से जनमानस में जागृति पैदा की थी और हर गलियारे से आज़ादी की गूँज होती थी। जाने कितने और साहित्यकारों को तुमने अपनी ताकत दी थी। पर अब....." यह कहते ही कलम ने अपना मुँह फेर लिया।
बारूद का अट्हास और बढ़ गया, उसने हँसते हुए कहा," तुम मुर्ख हो तुम ये क्यों भूल रही हो उस दौरान हम गुलाम थे। पर आज हम आज़ाद है और हमारे संविधान ने हमें पूरी आज़ादी दी है हम जो चाहे लिखें।"
"तो क्या बलात्कार, भ्रष्टाचार, खून खराबा ...! "कलम ने अपना विरोध दर्ज़ करवाया।
बारूद कुछ कहता उसके पहले उसने कलम के मालिक को कमरे में प्रवेश होते देख लिया सो उसने कहा,
"अब तुम अपनी भाषण बाज़ी बन्द करो,वो देखो अपना मालिक आ रहा है...न्यूज़ लिखनी होगी उसको आज भी, चलो तैयार हो जाओ...। और वह कलम में समां गया।
कलम अब उसके मालिक के हाथ में थी।
कल्पना भट्ट
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बड़े ही सार्थक विषय का चुनाव किया है लघुकथा में...सादर
आदरणीय कल्पना भट्ट जी, नमस्कार । अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें।
मुह तरमा कल्पना साहिबा , अच्छी लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
बहना कल्पना भट्ट जी आदाब, लघुकथा का प्रयास अच्छा है,लेकिन अभी और समय चाहिए,कथानक भी कमज़ोर है, संवाद में भी कसावट नहीं है,पंच लाइन भी कमज़ोर है, बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीया कल्पना जी , नमस्कार !
बहुत ही सुन्दर लघुकथा ... हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।।
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