"ऑफ़ ओह! शीला मैं तो तंग आ गया हूँ, तुम्हारे हाथ में चौबीसों घण्टे मोबाइल को देखकर।" शीला अपनी धुन में थी, नित्यक्रम से निबट कर टी.वी. के आगे अपना मनपसन्द सीरियल देख रही थी और साथ में उसकी उँगलियॉ मोबाइल पर लगातार चल रही थी। शीला की सास, और ससुर जी भी वहीं बैठे हुए थे। वे तपाक से बोले," शेखर की माँ! मुझे तुम्हारी जवानी याद आ रही है...।" शीला के कान चौकन्ने हो गये, वह उनकी तरफ देख रही थी। ससुर जी उसके देखने का आशय समझ गये; उन्होंने कहा,"अरे उस ज़माने में यह मुआ मोबाइल -शोबाइल नहीं था, तुम्हारी सास स्वेटर बुना करती थी, दिन भर सुइयाँ चलती थी इसके हाथ में।" वह जिस अंदाज़ से बखान कर रहे थे, कमरे ठहाकों से गूंज गया।तभी मोबाइल की घण्टी बजी। अबकी बार शेखर की बारी थी, वह उठकर दूसरे कमरे में चला गया। शीला ने अपने सास से कहा," मम्मी जी! आप शेखर से तो कुछ नही कहतीं, उनका फोन भी तो दिन भर आता है। आप जब देखो...।" शेखर लौट कर आ रहा था इसी कमरे में जहाँ सब बैठे हुए थे, उसने शीला की बातें सुन ली थी, क्रोध से वह बोला, अच्छा तो मेरी शिकायत कर रही हो... तुम जानती भी हो मोबाइल से मैं बिसिनेस की बात करता हूँ, क्लाइंट्स हों या व्यापारी सब से इसी पर बात होती है... लो मैं रख देता हूँ इसको...कल से तुम संभालो बिजिनेस...।" मोबाइल पटक कर वह अपने कमरे में चला गया और दरवाज़ा धम्म से बन्द कर दिया। मामला गम्भीर हो चला था। सास-ससुर चुप-चाप अपने कमरे में चले गए। शीला अब अकेली रह गयी थीं। यूँ भी रात हो गयी थी सोने का समय हो गया था, वह दोनों मोबाइल लेकर अपने कमरे में चली गयी। शेखर करवट बदल कर सो चूका था। शीला ने दोनों मोबाइल को चार्जिंग पर लगाया और उसने भी करवट बदल ली, शायद सोने का प्रयास कर रही थीं। पति-पत्नी अलग दिशाओं में चेहरा करे सो रहे थे, परन्तु मोबाइल बिस्तर पर चार्ज हो रहे थे, उनकी मद्दी रौशनी मानो शेखर और शीला का उपहास उड़ा रही थी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
कृपया ध्यान दीजिएगा :
//मद्दी रौशनी// = //मंद रौशनी// या //मद्धम रौशनी//
बहुत बढ़िया सृजन के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना भट्ट साहिबा।
ग़लतफ़हमी का कोई इलाज नही है ।सुविधा जब आफत बन जायें तो ये विचारणीय प्रश्न है ।अंतिम शब्दों में कथा का निचोड़ समाहित है ।कथा के लिये बधाई आद० कल्पना भट्ट जी ।
लघु कथा अच्छी लिखी है। हार्दिक बधाई, बहन कल्पना जी।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी आदाब,
सशक्त और कटाक्षपूर्ण लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
बहना कल्पना भट्ट जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
जनाब तस्दीक़ भाई,ये प्रतिभा जी की नहीं कल्पना जी की प्रस्तुति है ।
मुह तरमा प्रतिभा साहिबा, सीख देती सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
लघुकथा की आखिरी दो पंक्तियों ने मानवीय जीवन की व्यव्हारिकता पर कटाक्ष करते हुए वास्तविकता से रूबरू करवाया हैं,बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीया कल्पना दी.
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