"अरे सुखिया! सुन तो मन्ने एक बात सूझी हैं, तू कहे तो बताऊँ।"
"का बात सूझी है दद्दा! बताय ही द्यो। मैं तो परेसान हो गया हूँ, एक तो उ बैंक का मनजेर बाबू आज सुबह ही कह रहे थे कि जो करजवा हम लिये रही उ का ब्याज भरने को पड़ी...।"
"ह्म्म्म हम सुन लिए थे उ वा की बात, तभी तो हम आये हैं, तू एक काम कर, तू कल सरपंच से कछु उधार मांग ले, वो इंकार न करेगा, और उ पैसा से अपन का ब्याज की किश्त चुकाई दिए।"
"होउ , इ हे बात तो हमरी ख़ोपड़िया में आयी ही नही। हम कल ही सरपंच जी से बात करेंगे। पर दद्दा हम इहे काम तो आज भी कर सकत हैं।"
" नेकी और पूछ पूछ, जा बचवा जा, नेक काम में कउनु देरी नही करनी चाहे।"
सरपंच के घर जाते हुए उसकी निगाह हरीसिंह पर पड़ गयी। वह अपने खेत पर बैठा था। हरिसिंह ही क्यों, जहाँ तक भी उसकी नज़र पहुँच रही थी, सभी लोग हैरान परेशान नज़र आ रहे थे। बाढ़ ने उन सब की फसल को बर्बाद कर दिया था।
और सभी कर्ज तले दबे हुए थे, किसीने बैंक से लिया तो किसी ने सरपंच से जो एक महाजन भी था।
सब की हालत सुखिया जैसी ही हो रही थी। उनको देखकर सुखिया ने सरपंच के पास जाने का इरादा बदल दिया और वह घर से फावड़ा लेकर अपने खेत की तरफ निकल पड़ा।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
क्षेत्रीय बोली के पात्रों और संवादों में बेहतरीन रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया साहिबा। कल्पना भट्ट साहिबा।
वक्त की मार है,बाढपीडित किसानों को क़र्ज़ लेना पड़ा ।दरबदर भटकने से बेहतर रहा कि उन्होंने खेत में जाकर कार्य करने का सोचा ।बधाई कथा के लिये आद० कल्पना भट्ट जी ।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी, नमस्कार। अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
एक किसान/निर्धन पर पड़ने वाली दोहरी मार पर क्षेत्रीय भाषा में बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना भट्ट साहिबा।
बहना कल्पना भट्ट जी आदाब,लघुकथा का प्रयास अच्छा है,लेकिन अभी कुछ और कसावट चाहता है,बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बढ़िया रचना हुई है आ कल्पना भट्ट जी लेकिन अभी इसपर और प्रयास की जरुरत है. बधाई इस रचना के लिए
आ. प्रतिभा बहन, शोषण को उभारती अच्छी कथा हुयी है । हार
दिक बधाई ।
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