आज लहरों ने की बातें मुझसे
बोलीं
तुम सोचती हो तुम हो बहादुर
समय से तुम लडती हो
मूर्ख हो तुम
जो यह सोचकर दम भरती हो|
और वह इठला कर चली गयी
दूर
वहीं जहाँ से वह आयीं थी
किनारे तक
और वहाँ पड़े चट्टानों से
टकरा-टकरा कर रही थी
बातें उनसे,
कह रहे थे चट्टान उनसे
रुक जाओ
करीब आप मेरे ऊपर से
न यूँ बह जाओ
रुको कुछ घड़ी
की हम तपते हैं
और देखो हम बन गये है ठोस और जड़
लहरें कुछ देर करती रहीं
अटखेलियाँ
चट्टान पर से गोल-गोल घूमकर
फिर समां गयीं उसी धारा में
जहाँ से वह आई थीं
अब वह और धारा एक हो चुकी थीं
कुछ देर मैं वहीँ खडी रही
यह सोच कर कि
आएँगी फिर लहरें
करीब मेरे और करेंगी बातें मुझसे
पर अब वह नदी के प्रवाह में
बह रही थी और दूसरी ओर
वह निकल पड़ी थी
शायद हवा से बातें करने
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आदरणीय विजय निकोरे जी|
धन्यवाद आदरणीय समर भाई |
धन्यवाद् आदरणीय तेज वीर सिंह जी|
बेहतरीन बिम्बात्मक अभिव्यक्ति। हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना भट्ट साहिबा। कुछ-एक टंकण-त्रुटियां रह गईं हैं, कृपया देख लीजिएगा।
आदरणीया कल्पना जी बहुत बेहतरीन रचना सुंदर औऱ सार्थक रचना के लिए बहुत बहुत बधाई, आंशिक तंकड़ त्रुटि देख लीजिएगा
इस अच्छी रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीया कल्पना जी।
अच्छी कविता हुई है आदरणीया.. सादर
बहना कल्पना भट्ट जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय कल्पना भट्ट रौनक जी। बेहतरीन कविता।
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