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गजल - फिर वो’ मंजर ढूँढते हैं

मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ 

गाँव से आकर नगर में फिर वो’ मंजर ढूँढते हैं

ईंट गारे के महल में गाँव का घर ढूँढते हैं

 

रौशनी देने सभी को मोम पिघला भी, जला भी  

पूजना हो यदि कभी तो लोग पत्थर ढूँढते हैं  

 

दौरे हुए जब साहबों के, वो चुनावी दौर था   

गाँव वाले अब नगर में रोज दफ्तर ढूँढते हैं

 

जुल्म सहने की हमें यूँ हो गईं हैं आदतें कुछ  

रहजनों के तम्बुओं में रोज रहबर ढूँढते हैं

 

खूब सारा दर्द देकर हो गया ओझल नजर से

क्या करें हम फिर वही प्यारा सितमगर ढूँढते हैं

"मौलिक एवं अप्रकाशित" 

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 3, 2018 at 12:49pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी का हृदय से आभार
Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 3, 2018 at 12:48pm
आदरणीय राज़ नवादवी जी आपकी बारीक नजर को सादर नमन
आदरणीय समीर कबीर जी का सुझाव अनुकरणीय है, मैं सुधार कर पुनः प्रस्तुत करता हूँ, मार्गदर्शन के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय sushil sarna जी का हृदय से आभार
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2018 at 9:08pm

आ. भाई बसंत जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on July 1, 2018 at 8:20pm

'साहिबों के जब हुए दौरे चुनावी दौर था वो'

Comment by राज़ नवादवी on July 1, 2018 at 6:42pm

बधाई हो जनाब बसंत कुमार जी. मेरा इक प्रश्न है: क्या ये मिसरा बह्र में है?

"दौरे हुए जब साहबों के, वो चुनावी दौर था "

ग़ज़ल इस बह्र में है: २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ 

सादर 

Comment by TEJ VEER SINGH on July 1, 2018 at 6:28pm

हार्दिक बधाई आदरणीय बसंत कुमार जी। लाज़वाब गज़ल।

खूब सारा दर्द देकर हो गया ओझल नजर से

क्या करें हम फिर वही प्यारा सितमगर ढूँढते हैं

Comment by gumnaam pithoragarhi on July 1, 2018 at 10:03am

बहुत खूब वाह,,,,,

Comment by Mohammed Arif on June 30, 2018 at 5:37pm

आदरणीय बसंत कुमार जी आदाब,

                               उम्दा सामयिकता का पुट लिए ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 30, 2018 at 1:43pm

रहजनों के तम्बुओं में रोज रहबर ढूँढते हैं...वाह आदरणीय शर्मा जी क्या ही खूब ग़ज़ल कही...

Comment by Shyam Narain Verma on June 30, 2018 at 11:45am
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर 

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