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खासों से बढ़ के खास यूँ होते हैं आम भी
जिसने समझ लिया उसे मिलते हैं राम भी।१।
कैसे अजब हैं लोग जो कहते हैं यार ये
बदनामियों के साथ ही होता है नाम भी।२।
आती है जिसको भोर यूँ झट से अगर कहीं
ढलती है उसकी दोस्तो ऐसे ही शाम भी।३।
अभिषेक हो रहा है अब सुनते शराब से
करने लगी हवस पतित देवों का धाम भी।४।
जब से गमों ने चुप्पियाँ साधी हैं दोस्तो
गिरने लगे हैं रोज ही खुशियों के दाम भी।५।
यूँ तो बहाया खून ढब गौरों के वास्ते
आजाओ अब तो दोस्तो अपनों के काम भी।६।
अपनी कटेगी किस तरह यारो बताइये
शामें उदास ही नहीं खाली है जाम भी।७।
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार ।
आ. भाई गुमनाम जी, सादर अभिवादन । गजल की प्रशंसा के लिए आभार ।
जनाब भाई लक्ष्मण धा मी साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं I
वाह बहुत खूब वाह ,,,,भाई जी बधाई ,,,
आ. भाई सुशील जी, गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर स्नेहाशीष पा संतुष्टि हुयी । कमियों से अवगत कराते रहिए । हार्दिक आभार स्वीकारें ।
अभिषेक हो रहा है अब सुनते शराब से
करने लगी हवस पतित देवों का धाम भी।४।वाह आदरणीय धामी जी वाह क्या वास्तु स्थिति को आपने दर्शाने का प्रयास किया। बेहतरीन अहसासों की ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
कृपया छटे शेर में गौरों को गैरों पढ़े ।
आ. भाई आरिफ जी, इस स्नेह के लिए आभार ।
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