माँ ....
बताओ न
तुम कहाँ हो
माँ
दीवारों में
स्याह रातों में
अकेली बातों में
आंसूओं के
प्रपातों में
बताओं न
आखिर
तुम कहाँ हो
माँ
मेरे जिस्म पर ज़िंदा
तुम्हारे स्पर्शों में
आँगन में गूंजती
आवाज़ों में
तुम्हारी डाँट में छुपे
प्यार में
बताओं न
आखिर
तुम कहाँ हो
माँ
बुझे चूल्हे के पास
या
रंभाती गाय के पास
पानी के मटके के पास
बताओं न
आखिर तुम
कहाँ हो
माँ
माँ
तुम जब से गयी हो
मेरा अस्तित्व
शून्य की परिभाषा
बन गया है
माँ
मैं तो सदा से
तुझ में समाया रहा
पहले गर्भ में
फिर आँचल के गर्भ में
फिर तेरी ममता के गर्भ में
फिर तेरी धुंधलाती दृष्टि के गर्भ में
बता न माँ
तू मुझे
गर्भाश्रय से वंचित क्यों कर गई
माँ
तू मुझे दीवार पर
अच्छी नहीं लगती
मुझे तस्वीर नहीं
माँ चाहिए
जो मुझे
अपने हाथों से मुझे
स्पर्श स्नान करा दे
मुझे अपने आँचल में छुपा ले
अपनी लोरियों से मुझे सुला दे
माँ
तू अपनी लाल का रुदन
सुन रही है न
मैं थक गया हूँ
तुम्हें पुकारते पुकारते
अब तो बताओं न
आखिर तुम
कहाँ हो
माँ
ए........क
बा.........र तो
आ जाओ
माँ ाँ ाँ ाँ ाँ ाँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बृजेश जी सृजन पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा के लिए दिल से आभार।
उत्तम बहुत ही उत्तम रचना आदरणीय..
आदरणीय vijay nikore जी सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से मान देने का हार्दिक आभार ।
आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब ... सृजन आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभारी है।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,माँ को समर्पित बहुत जज़्बाती कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से मान देने का हार्दिक आभार ।
आद0 Neelam Upadhyaya जी सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से मान देने का हार्दिक आभार ।
आदरणीय Mohammed Arif जी सृजन को अपनी आत्मीय प्रशंसा से मान देने का हार्दिक आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना साहब जी।बहुत मार्मिक और भावुक कविता लिखी है आपने।
आदरणीय सुशिल सरना जी, नमस्कार । माँ की स्मृतियों में डूबी बहुत ही हृदयस्पर्शी कविता। बधाई स्वीकार करें।
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