मापनी - 2122 2122 2122 212
जिन्दगी में ख्वाब कोई तो मचलना चाहिए
गर लगी ठोकर तो’ क्या, फिर से सँभलना चाहिए
सीखना ही जिन्दगी है उम्र का बंधन कहाँ
लोग बदलें या न बदलें, खुद बदलना चाहिए
कैद होकर घर में’ बैठोगे भला तुम कब तलक
शाम को इक बार तो घर से निकलना चाहिए
और कितने दर्द देगी जिन्दगी हमको यहाँ
ये अँधेरी रात गम की आज ढलना चाहिए
लात घूँसे छोड़ दो सब, बैठकर बातें करो
बातों’-बातों में न हरदम ही उछलना चाहिए
आये’ जब भी आँच अपने मान और सम्मान पर
तब हमारा रक्त थोड़ा तो उबलना चाहिए
पीठ पीछे वार पर रखिये सदा तीखी नजर
दाल दुश्मन की यहाँ बिलकुल न गलना चाहिए
मोड़ दो यदि रुख हवा का, तब तो’ कोई बात है
साथ सबके भीड़ बन यूँ ही न चलना चाहिए
कुछ तो’ कम हों आदमी से आदमी की दूरियाँ
बर्फ रिश्तों पर जमी है, अब पिघलना चाहिए
Comment
वाह वाह ग़ज़ल अच्छी लगी .. बधाई
आ. भाई बसंत जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब बसंत कुमार साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
आदरणीया Sushil Sarna जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीया Neelam Upadhyaya जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद
जिंदगी जीने का पूरा फलसफा ब्यान करती बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय सरजी।
आदरणीय दिलकश अशआर की इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
आदरणीय बसंत कुमार जी, बढ़िया पेशकश बधाई स्वीकार करें
हार्दिक बधाई आदरणीय बसंत कुमार जी।बेहतरीन गज़ल।
आये’ जब भी आँच अपने मान और सम्मान पर
तब हमारा रक्त थोड़ा तो उबलना चाहिए
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