हिचक--
"कभी बेटे को भी गले से लगा लिया कीजिये, वह भी आपके सीने से लगकर कुछ देर रहना चाहता है", रिमी ने गहरी सांस लेते हुए कहा. रमन को सुनकर तो अच्छा लगा लेकिन वह उसे दर्शाना नहीं चाहता था.
"ठीक है, इससे क्या फ़र्क़ पड़ जायेगा. वैसे भी तुम तो जानती हो कि मैं इन सब दिखावों में नहीं पड़ता", रमन ने अपनी तरफ से पूरी लापरवाही दिखाते हुए कहा. अंदर ही अंदर वह जानता था कि इसकी कितनी जरुरत है आजकल के माहौल में, लेकिन एक हिचक थी जो उसे रोकती थी.
"फ़र्क़ पड़ता है, आखिर उसके अधिकतर दोस्त तो अपने पिता से कितने दोस्ताना तरीके से रहते हैं. और आप इतने रिजर्व, आखिर आप ऐसे क्यूँ रहते हैं?
रमन को मालूम था कि वह इन बातों का जवाब नहीं दे पायेगा, एक हिचक थी जो शुरू से उसे यह सब करने से रोकती थी. और उसने बात बदलने के लिए बोला "उसकी सब तैयारी हो गयी ना, देखना कुछ छूट न जाए".
रिमी वापस बेटे का बैग पैक करने लगी, रमन ने धीरे से अपनी बाँहों का घेरा कुछ यूँ बनाया जैसे बेटे को सीने से लगा रहा हो. उसी समय बेटा कमरे में आया और रमन से ख़ामोशी से लिपट गया. हौले से उसने अपना हाथ बेटे के पीठ पर फेरना शुरू किया, सामने से रिमी ने देखा तो वह भी आकर दोनों से लिपट गयी.
हिचकियों के बीच बरसों पुरानी हिचक हौले हौले बह निकली.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आ नीलम उपाध्याय जी
बहुत बहुत आभार आ शेख सहजाद उस्मानी साहब
बहुत बहुत आभार आ तस्दीक़ अहमद खान साहब
आदरणीय विनय कुमार जी, बहुत ही अच्छी रचना। प्रस्तुति के लिए बधाई।
बहुत बढ़िया समापन के साथ बढ़िया रचना।हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी।
जनाब विनय कुमार साहिब , अन्दर की भावनाओं को दर्शाती सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बहुत बहुत आभार आ बसंत कुमार शर्मा जी
बहुत बहुत आभार आ तेजवीर सिंह जी
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