उसका सपना था कि दुनिया ख़त्म हो जाए और दुनिया ख़त्म गयी। अब अगर कोई बचा था तो सिर्फ़ वो और उसकी टूटी-फूटी मोहब्बत।
"अब तो इसे मुझसे बात करनी ही पड़ेगी।" खण्डहर बन चुके शहर की वीरान सड़क पर खड़े उस शख़्स ने कहा।
वह उससे बेपनाह मुहब्बत करता था। वह चाहता था कि वो उसे देखे, उसे समझे, उससे बात करे मगर वो हमेशा ही किसी न किसी और को ढूँढ लेती थी। वह इस बात से हमेशा दुःखी रहता था कि उसे छोड़कर वो बाकी सबसे बात करती है मगर उससे नहीं। उसने कहीं पढ़ा था कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इसलिए उसने सोचा कि दुनिया अगर ख़त्म हो जाए और फिर सिर्फ़ वो दोनों ही बचें तो उसे हार कर उससे बात करनी ही पड़ेगी। मगर बात तो दूर वह तो उसकी तरफ़ देख भी नहीं रही थी।
वह उसके सामने जा कर खड़ा हो गया पर उसने हमेशा की तरह एक बार फिर मुँह फेर लिया। उससे बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने उसका हाथ पकड़ा और कहा, "तुम मुझसे बात क्यों नहीं करती?" उसने गुस्से से उसकी तरफ़ देखा और उसका हाथ झटक कर वहाँ से चली गयी। वह उसे चुपचाप देखता रहा जैसे कि वो हमेशा देखा करता था।
वो एक टूटे हुए खम्भे के पास जा कर रुक गयी और उससे कुछ कहने लगी। फिर एक मकान के अन्दर गयी और उसकी टूटी हुई खिड़कियों और दरवाज़ों से हँस-हँस कर बातें करने लगीं।
वह आश्चर्यचकित था। "मैं इतना गया-गुज़रा हो गया हूँ!" वह बड़बड़ाते हुए उसके पास जा पहुँचा। "तुम निर्जीव चीजों तक से बात कर सकती हो मगर मुझसे नहीं। तुम्हें आज बताना ही होगा। मेरे अन्दर क्या कमी है?"
उसने पहली बार उसकी आँखों में आँखें डाल कर देखा और कहा, "तुम हिन्दू हो।"
"तो?" उसे लगा यह कौन सी बड़ी बात है।
"और मैं मुस्लिम।" पर उसकी आँखों से नफ़रत झलक रही थी। "तुम ये बात आज अच्छे से समझ लो, मैं तुमसे कभी प्यार नहीं कर सकती। अगर ये सारी बेजान चीज़ें भी ख़त्म हो जायें तो भी।"
वह धम्म से ज़मीन पर गिर पड़ा। अब वह क्या करे? वह पूरी तरह से असहाय हो चुका था। उसकी लड़ाई उससे नहीं, उसके ईश्वर से थी।
उसने पास में पड़ी हुई एक रस्सी उठायी और उसके गले को कस दिया। "आज मैं तुझे ज़िन्दा नहीं छोड़ूँगा।"
"ख़ुदा की राह में मरना मेरे लिए फ़क्र की बात होगी।" उसके चेहरे पर डर का कोई भाव नहीं था।
"मैं तेरे ख़ुदा का भी गला घोंट दूँगा और फिर ये किस्सा ही हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा।" वह पागल हो चुका था।
उसकी बात सुनकर वह ज़ोर से हँसी और बोली, "तू दोज़ख़ में जाएगा क़ाफ़िर! तेरे लिए कभी न ख़त्म होने वाली आग है।"
उसने फन्दे को कस दिया। वह तड़पने लगी और थोड़ी ही देर में तड़पते-तड़पते मर गयी।
उसकी लड़ाई उससे नहीं, उसके ईश्वर से थी। दुनिया ख़त्म हो चुकी थी मगर चीज़ें अब भी वैसी की वैसी ही थीं। वह बीच सड़क पर नमाज़ पढ़ रही थी और उससे दूर पड़ी थी उस क़ाफ़िर की लाश जिसने अपना गला घोंट कर ख़ुद को मार लिया था।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों का मिलना सौभाग्य की बात है। आपका पुनः बहुत-बहुत आभार आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी। हार्दिक धन्यवाद। सादर।
शुक्रिया मेरी टिप्पणी के अनुमोदन और पुनर्विचार कर बढ़िया तनिक बदलाव के लिए आदरणीय महेंद्र कुमार साहिब।
आदरणीया बबिता जी, मुझे खेद है कि रचना आप तक नहीं पहुँच सकी। लड़का कट्टर नहीं था। रही बात धर्म परिवर्तन की तो उससे मैं इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता क्योंकि प्रेम में धर्म परिवर्तन का अर्थ हुआ कि धर्म प्रेम से बड़ा है। इस पर अलग से कभी कुछ लिखूँगा। रचना पर उपस्थित हो कर मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ। वांछित सुधार कर दिया है। एक बार देख लीजिएगा। बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।
सादर आदाब आदरणीय समर कबीर सर। लघुकथा को पसन्द करने के लिए आपका हृदय से आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।
दोनों ही कटटर धार्मिक निकले,अगर मोहब्बत को सर्वोपरि माना था तो लड़के को धर्म परिवर्तन करके ज़िंदा रखके मशाल देनी थी समाज को। बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय सरजी।
उम्दा कथानक और कथ्य के साथ बढ़िया सृजन। हार्दिक बधाई आदरणीय महेंद्र कुमार साहिब। आप बेहतरीन लघुुकथा कहने जा रहे थे।
लेकिन पोस्ट करने से पहले पाठकीय अवलोकन में कहीं कुछ कमी रह गई। आशय यह कि रचना तनिक. संपादन/परिमार्जन/स्पष्टता मांग रही है। विशेषकर शीर्षक तथा दूसरे और तीसरे अनुच्छेदों में। कसावट की जा सकती है मेरी पाठकीय नज़र में। पूरी रचना एक सपना है या सपना समाप्त होने के बाद कोई सत्योद्घाटन भी? सादर।
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब, अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
मुझे नहीं लगता कि रचना कहीं से भी उलझी हुई है। यदि आप बता सकें कि कहाँ पर आपको ऐसा लगा तो शायद मैं उसे स्पष्ट कर सकूँ। अरस्तू ने मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा था। इस रचना में उसका खण्डन करते हुए मैंने उसे धार्मिक पशु कहा है। रचना पर उपस्थित हो कर अपने मत से अवगत कराने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।
धर्मान्धता सभ्यता के विनाश का कारक है शायद ये ही कहना चाह रहे हैं आप इस रचना के माध्यम से। रचना कई जगह उलझ गई है या शायद मै ही नहीं समझ पाई। शीर्षक के लिये विशेष बधाई
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