कुछ रंजो गम के दौर से फुर्सत अगर मिले ।
आना मेरे दयार में कुर्बत अगर मिले ।।1
यूँ हैं तमाम अर्जियां मेरी खुदा के पास ।
गुज़रे सुकूँ से वक्त भी रहमत अगर मिले ।।2
आई जुबाँ तलक जो ठहरती चली गयी ।
कह दूँ वो दिल की बात इजाज़त अगर मिले ।।3
कर सकती है सुराख़ तेरे आसमान में ।
औरत को थोड़ी आज हिफाज़त अगर मिले ।।4
अब दीन है बचा न वो ईमान ही बचा ।
गिर जाएगा वो शख्स हुकूमत अगर मिले ।।5
कर लूं यकीन फख्र से तेरी ज़ुबान पर ।
मुझको तेरा ज़मीर सलामत अगर मिले ।।6
ऐ जिंदगी मैं तुझसे अभी रूबरू नहीं ।
तुझको गले लगा लूँ मैं मोहलत अगर मिलें।।7
हँसना किसी के दर्द पे अब सीख लेंगे हम ।
कुछ दिन हुजूऱ आपकी सुहबत अगर मिले ।।8
दिल को सनम का हुस्न गिरफ़्तार कर गया ।
हो जायेगा रिहा वो ज़मानत अगर मिले ।।9
पढ़ लेना आप खुद ही वफाओं की दास्ताँ ।
लिक्खा हुआ हमारा कोई ख़त अगर मिले ।।10
हर आदमी बिकाऊँ है बाज़ार में यहाँ ।
बस शर्त एक है उसे कीमत अगर मिले ।।11
---नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
बड़ी ही अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय त्रिपाठी जी..आदरणीय समर जी ने कुछ नए शब्दों ज़िक्र भी किया जो हम जैसों के लिए उपयोगी है।
बहुत सुंदर आदरणीय नवीन जी। ... बहुत खूबसूरत ग़ज़ल बनी है। हार्दिक बधाई।
वाह क्या कहने
आ0 कबीर सर वास्तविकता से अवगत कराने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर । आपकी इस्लाह को हमेशा महत्व देता हूँ और देता रहूंगा ।
आपका क़ाफ़िया 'अत' है, यानी 'त' और "ख़त" में 'त' नहीं "तोय" है, ग़ज़ल चूँकि फ़ारसी विधा है इसलिये उसका विधान भी उर्दू के हिसाब से ही तय होगा,किसी अन्य भाषा से नहीं,वैसे तो कुछ लोग इसे अपने हिसाब से ले लेते हैं,लेकिन जो ग़लत है वो ग़लत ही माना जायेगा,जैसे लोग "शह्र" को 'शहर' ले ही रहे हैं,लेकिन उनके लेने से ग़लत सहीह नहीं हो जाएंगे,आप अगर ग़ज़ल को गम्भीरता से सीखना चाहते हैं तो शुद्ध प्रयोग ही करें, अन्यथा आप भी आम लोगों की तरह होना चाहें तो आप की मर्ज़ी, मेरा काम बताना है सो बता दिया ।
आ0 कबीर सर सादर नमन और बहुत बहुत शुक्रिया और ।अति महत्वपूर्ण इस्लाह ।
एक बात समझ में नहीं आई सर एक ख़त उर्दू वाला है जिसका हर्फ़ ए रवी कुछ और पर ख़त शब्द हिंदी की कसौटी पर ख् अत तो बन रहा है । क्या फुर्सत मुहलत खत हिंदी में काफ़िया नहीं बन सकते ।
अब तो ग़ज़लें उड़िया तेलगु पंजाबी और मराठी में भी लिखी जा रही है । ध्वनि तो एक जैसी ही है सर ।
आ0 कबीर सर सादर नमन और बहुत बहुत शुक्रिया और ।अति महत्वपूर्ण इस्लाह ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा ।
'आना मेरे दयार में कुर्बत अगर मिले'
इस मिसरे में 'क़ुर्बत' को "मुहलत" करना उचित होगा ।
'कर सकती है सुराख़ तेरे आसमान में'
इस मिसरे में 'सुराख़' ग़लत है,सहीह शब्द है "सूराख़"इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'सूराख़ कर न दे ये तेरे आसमान में'
'लिक्खा हुआ हमारा कोई ख़त अगर मिले'
इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है ।
'हर आदमी बिकाऊँ है बाज़ार में यहाँ'
इस मिसरे में 'बिकाऊँ' को "बिकाऊ" कर लें ।
आ0 बसंत कुमार शर्मा साहब हार्दिक आभार ।
वाह, वाह, क्या कहने, लाजबाब गजल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल करें
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