मानव छंद में प्रयास :
मेरे मन को जान गयी ।
फिर भी वो अनजान भयी।।
शीत रैन में पवन चले।
प्रेम अगन में बदन जले।।
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देह श्वास की दासी है।
अंतर्घट तक प्यासी है।।
मौत एक सच्चाई है।
जीवन तो अनुयायी है ।।
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रैना तुम सँग बीत गई।
मैं समझी मैं जीत गई।।
अब अधरों की बारी है।
तृप्ति तृषा से हारी है।।
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रामबली गुप्ता जी सृजन एवं प्रयास के दिल से सराहना एवं सुझाव का दिल से आभार। मैं इसे अभी एडिट कर पुनः पोस्ट करता हूँ। तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन पर आपकी मधुर प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब .. सर प्रयास को मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय सुशील भाई जी। सुंदर छंद हुए हैं हार्दिक बधाई स्वीकारें।
तृतीय छंद में कुछ गुंजाईश है। प्रवाह बाधित हो रहा है। रैन को रैना और संग को सँग कर लीजिए। इसी प्रकार 'तृषा से तृप्ति हारी है' के स्थान पर 'तृप्ति तृषा से हारी है' कर लीजिए।
बाकी सब शुभ शुभ।सादर
आ. भाई सुशील जी, अच्छी रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
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