मुझ को कहा था राह में रुकना नहीं कहीं
सदियों को नाप कर भी मैं पहुँचा नहीं कहीं.
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ज़ुल्फ़ें पलक दरख़्त सभी इक तिलिस्म हैं
इस रेग़ज़ार-ए-ज़ीस्त में साया नहीं कहीं.
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तुम क्या गए तमाम नगर अजनबी हुआ
मुद्दत हुई है घर से मैं निकला नहीं कहीं.
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अँधेर कैसा मच गया सूरज के राज में
जुगनू, चराग़ कोई सितारा नहीं कहीं.
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खेतों को आस थी कि मिटा देगा तिश्नगी
गरजा फ़क़त जो अब्र वो बरसा नहीं कहीं.
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ये और बात है कि अदू को चुना गया
गरचे वो मेरे सामने टिकता नहीं कहीं.
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हमने भी “नूर” जंग लड़ी रात के ख़िलाफ़
पर सुब’ह अपने नाम का चर्चा नहीं कहीं.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. अजय जी,..
इस ग़ज़ल के बारे में एक रोचक बात बताता हूँ...
दरअस्ल इस ग़ज़ल ने परसों आकार लेना शुरू किया .. और पहला मिसरा जो कौंधा वो यूँ था...
"चलता तो हूँ बहुत मैं पहुँचता कहीं नहीं" और ये भी खुद के हाल पे तंज़ के स्वरूप बना..
weight कण्ट्रोल ले चक्कर में मैं सुबह से tread mill तोड़ रहा था.. डिस्प्ले पर 5 KM पूरे होने का निशाँ आया तब ध्यान आया कि इतना चलकर भी मैं कहीं नहीं पहुँचा हूँ :)))
खैर इस कसरत से ग़ज़ल भी हो गयी और वेट loss का टारगेट भी पूरा हुआ
आदरणीय निलेश जी, बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है. हर शेर बहुत खूब है. हार्दिक बधाई.
शुक्रिया आ. तेज वीर सिंह जी
सुक्रिया आ. समर सर
शुक्रिया आ. सुरखाब भाई
हार्दिक बधाई आदरणीय निलेश जी।बेहतरीन गज़ल।
तुम क्या गए तमाम नगर अजनबी हुआ
मुद्दत हुई है घर से मैं निकला नहीं कहीं.
खेतों को आस थी कि मिटा देगा तिश्नगी
गरजा फ़क़त जो अब्र वो बरसा नहीं कहीं.
जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
जनाब निलेश "नूर" साहिब उम्दा ग़ज़ल के लिये मुबारक बाद
कुबूल फरमाऐं
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