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दिया आप ने था हमें जो सिला कुछ ।
बड़ा फैसला हमको लेना पड़ा कुछ ।।
कहा किसने अब तक नहीं है जला कुछ ।
धुंआ रफ़्ता रफ़्ता है घर से उठा कुछ ।।
बहुत हो चुकी अब यहाँ जुमले बाजी ।
तुम्हारे मुख़ालिफ़ चली है हवा कुछ ।।
बहुत दिन से ख़ामोश दिखता है मंजर ।
कई दिल हैं टूटे हुआ हादसा कुछ ।।
कदम मंजिलों की तरफ बढ़ गए जब ।
तो अब पीछे मुड़कर है क्या देखना कुछ।।
मेरा ऐब सबको बताने से पहले ।
जरा देखिए आप भी आइना कुछ।।
मेरे कत्ल पर तो उँगलियाँ उठेंगी ।
करें इत्तला सबको मेरी ख़ता कुछ ।।
करेंगे यकीं कब तलक लोग तुम पर ।
मिला ज़ख़्म तुमसे कई मर्तबा कुछ ।।
ज़माने की नजरें ख़फ़ा सी लगीं तब ।
तेरी शाख पर जब भी चर्चा हुआ कुछ।।
यहां छीन कर ही मिला है कोई हक ।
करो जंग हो गर बचा हौसला कुछ ।।
तुम्हारे ये हालात बदले न होते ।
अगर याद करते हमारी वफ़ा कुछ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी. सुन्दर गज़ल. सादर.
बधाई आदरणीय नवीनजी।खूब सुन्दर गज़ल।
आ0 तेजवीर सिंह साहब तहे दिल से बहुत बहुत आभार ।
आ0 कबीर सर सादर नमन । महत्व पूर्ण इस्लाह के लिए हार्दिक आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
बहुत हो चुकी अब यहाँ जुमले बाजी ।
तुम्हारे मुख़ालिफ़ चली है हवा कुछ ।।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' मेरे कत्ल पर तो उँगलियाँ उठेंगी'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'मेरे क़त्ल पर उंगलियाँ तो उठेंगी'
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, आदाब, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे हार्दिक बधाई. सादर.
आ. भाई नवीन मणि जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
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