कभी सदा-ए-दिल-ए-यार जो सुनी होती
तो दास्ताँ न मेरी दर्द से भरी होती
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रक़ीब पर न कभी रहम गर किया होता
मेरी ये ज़िंदगी सहरा न फिर बनी होती
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तुम्हारी ज़िंदगी में ग़म कभी न आते गर
रिदा-ए-आरज़ू थोड़ी सिकुड़ गई होती
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गुहर हयात में तुमको नसीब हो जाते
ज़रा सी वक़्त से तैराकी सीख ली होती
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ख़ला* न आज मरासिम के बीच होता गर (*रिक्तता )
ज़मीन ज़र की तुम्हें लत नहीं पड़ी होती
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जहाँ मैं आज खड़ा हूँ वहाँ नहीं होता
अगर सलाह ग़लत रहबरों ने दी होती
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हुनर सुख़न का अगर सीखते नहीं ख़ुद तो
तुम्हारी दास्ताँ भी आज अनकही होती
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सिमटता आसमाँ शायद तुम्हारी बाहों में
ज़रा सी पाँवों तले गर ज़मीन भी होती
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ख़ुदा जो नैमत-ए-उल्फ़त अता नहीं करता
'तुरंत' ख़त्म ये दुनिया भी हो चुकी होती
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी |
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ. भाई गिरधारी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय Samar kabeer साहेब | आदाब | आपकी पुरखुलूस हौसला अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रग़ुज़ार हूँ .| उर्दू /फ़ारसी के कई शब्द दिखाई स्त्रीलिंग देते है लेकिन होते पुल्लिंग है | ये समस्या तो है मेरे लिए | ख़ला भी ऐसा ही है |
आदरणीय गहलोत साहब बेहतरीन गजल के लिए बहुत बहुत बधाई
'ख़ला* न आज मरासिम के बीच होती गर'
"ख़ला" शब्द पुल्लिंग है,देखियेगा ।
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
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