(११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२ )
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ये हुआ है कैसा जहाँ खुदा यहाँ पुरख़तर हुई ज़िंदगी
न किसी को ग़ैर पे है यक़ीं न मुक़ीम अब है यहाँ ख़ुशी
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कहीं रंज़िशें कहीं साज़िशें कहीं बंदिशें कहीं गर्दिशें
कहाँ जा रहा है बता ख़ुदा ये नए ज़माने का आदमी
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कहीं तल्ख़ियों का शिकार है कहीं मुफ़्लिसी की वो मार है
मुझे शक है अब ये बशर कभी हो रहेगा ज़ीस्त में शाद भी
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कहीं वहशतों का निज़ाम है कहीं दहशतें खुले-आम हैं
मिले आदमी से यूँ आदमी मिले अजनबी से जूँ अजनबी
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यहाँ रुख़ पे उजले नक़ाब और दिलों में रहते उक़ाब हैं
पसे-पैरहन वो छुपा रहे जो भरी दिलों में है गंदगी
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यहाँ एक मौक़ा तलाश कर रखे पाँव अपनों की लाश पर
ये भी क्या तरक़्क़ी हुई भला कहाँ जा रही है नई सदी
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यहाँ देख शह्र की खीरगी बढ़ी गाँव गाँव है तीरगी
जहाँ थीं रिवायतें पुरअसर वो ज़मीन अब कहीं खो गई
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कहीं मय से मिटती है प्यास और कहीं आब की भी न आस है
ये वतन अजीब है जिस जगह मिले क़िस्म क़िस्म की तिश्नगी
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ये 'तुरंत' की रही आरज़ू यहाँ नफ़रतों का न राज हो
मेरे मुल्क में बहे गर हवा तो सदा बयार हो प्यार की
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
३०/०६/२०१९
मुक़ीम =निवासी ,उक़ाब=गिद्ध ,पसे-पैरहन=कपड़ों के पीछे
खीरगी=चकाचोन्ध ,रिवायतें=परम्पराएं ,तिश्नगी=प्यास
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'कहीं वहशतों का निज़ाम है कहीं दहशतें खुले-आम है'
इस मिसरे के अंत में 'है' को "हैं" कर लें ।
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