कभी देखा नहीं सुनते रहे सैलाब आएगा
हमारे गाँव की चौपाल तक अब आब आएगा
**
खिलौना जानकर कुछ लोग उसको तोड़ डालेंगे
अगर तालाब की तह में उतर महताब आएगा
**
हमेशा ख़्वाब देखें और मेहनत भी करेंगे तो
हक़ीक़त में उतर कर एक दिन वो ख़्वाब आएगा
**
नहीं था इल्म हमको ये कि जिस फ़रज़न्द को पाला
वही बेआब करने सूरत-ए-कस्साब आएगा
**
ग़रीबी से दिलाएगा निज़ात अब कौन और कैसे
अमीरी का रियाया को कभी क्या ख़्वाब आएगा
**
सफ़र जारी रखो पैहम अगर हैं आप तिश्नालब
कि ख़ुद चलकर नहीं कोई कभी तालाब आएगा
**
हमें उम्मीद बिलकुल भी न थी जो दूर रहता है
उसी पर एक दिन नादाँ दिल-ए-बेताब आएगा
**
ख़यालों से परे था ये कि उलफ़त में कोई मजनूँ
छिड़कने को जबीं पर ले कभी तेज़ाब आएगा
**
'तुरंत' इतने ग़मों के ज़ीस्त में हम हो गए आदी
अगर फिर आया ग़म तो बस ग़म-ए-नायाब आएगा
**
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
०२/०९/२०१९
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'मुबाइल से हुए रिश्ते मुतासिर आज हैं इतने
कि रहते मुंतज़िर हैं हम कोई अहबाब आएगा'
इस शैर के ऊला में 'सहीह शब्द है "मुतास्सिर",और सानी में "अहबाब" शब्द 'हबीब' का बहुवचन है,देखियेगा ।
'ग़रीबी से दिलाएँगे निज़ात अब कौन और कैसे
क़फ़स में कब तलक देखें हसीँ सुरख़ाब आएगा'
इस शैर के ऊला में 'दिलाएँगे' की जगह "दिलाएगा" शब्द उचित होगा,और सानी में बात तार्किकता के विरुद्ध है,'सुरख़ाब' पानी का परिन्दा है,ग़ौर करें ।
'मुक़द्दर में कोई चश्म-ए-सितारा-याब आएगा'
इस शैैैर में 'चश्म-ए-सितारा-याब'
की तरकीब ठीक नहीं लगती ।
भाई Sushil Sarna जी , आपकी हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया | अहसासों को कागज़ पर उतारने के मामले में आप सिद्धहस्त हैं ,तभी अहसास समझ सकते हैं | चंद गिनती के लोग हैं जो गद्य में पद्य सा आनंद प्रदान करते हैं ,आप उनमें से एक हैं ,वरना अधिकतर लोग तो अतुकांत में घास ही काटते हैं | सादर नमन |
कभी देखा नहीं सुनते रहे सैलाब आएगा
हमारे गाँव की चौपाल तक अब आब आएगा
**
खिलौना जानकर कुछ लोग उसको तोड़ डालेंगे
अगर तालाब की तह में उतर महताब आएगा
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत जी ऐसे खूबसूरत अहसासों को आप कैसे लफ़्ज़ों में उत्तर लेते हैं , ये आप ही के बस की बात है। शेर दर शेर दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
सोचते ही रहे कि हम भी सागर बनेंगे इक दिन
लफ्ज़ किनारों पर ही मगर डर के रह गए
जूनून कम न था अहसासों का दिल में लेकिन
दर्द दिल के हम उफ़नती लहरों से कह गए
सरना
आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट स्नेहिल सराहना से उत्साहवर्धन के लिए ह्रदय तल से आभार एवं नमन
गिरधारी जी शानदार गज़ल्म बधाई
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online