(मफ ऊल_मफाईल_मफाईल_फ ऊलन)
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तुम चाहे गुज़र जाओ किसी राह गुज़र से
लेकिन नहीं बच पाओगे तुम मेरी नजर से
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वो खौफ़ ए ज़माना से या रुस्वाई के डर से
देता रहा आवाज मैं निकले न वो घर से
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तू जुल्म से आ बाज़ अभी वक़्त है ज़ालिम
पानी भी बहुत हो चुका ऊँचा मेरे सर से
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फँसता है सदा हुस्न के वो जाल में यारो
वाकिफ़ जो नहीं उनके दग़ाबाज़ हुनर से
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मालूम करें आओ कठिन कितना है रस्ता
कुछ लोग अभी लौट के आए हैं सफ़र से
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ठुकरा दिया जो तू ने मुझे ये तो बता दे
जाऊँ गा कहाँ जाने जहां मैं तेरे दर से
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ये जर्फ है अपना ये श ऊर अपना है लोगो
मैं सुनता रहा सिर्फ़ वो जब ना गहां बरसे
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कोई भी खता वार नहीं जाने मन इसका
दीवाना हुआ हूं तेरे जलवों के असर से
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इन्सान हैं हम कोई फरिश्ता तो नहीं हैं
ग़लती तो हुआ करती है दुनिया में बशर से
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देखी गई उठती हुई उस सम्त क़यामत
वो हाय गुज़र जाते हैं बे पर्दा जिधर से
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तस्दीक उन्हें कर दो ख़बर ढ़लने को है दिन
दीदार को बैठा है कोई दर पे सहर से
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह आदरणीय वाह बेहद खूब ग़ज़ल हुई...
जनाब भाई लक्ष्मण धामी साहिब 'आपकी इस इनायत का बहुत बहुत शुक्रिया
मुहतरम जनाब समर साहिब आ दाब 'आपकी इस हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
गुज़र में ( ز) है और नजर में (ظ) है, उर्दू के हिसाब से तो मेरे खयाल से सही है l मिसरा यूं कर लिया है " अगलात हुआ करती हैं दुनिया में बशर से"
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
तुम चाहे गुज़र जाओ किसी राह गुज़र से
लेकिन नहीं बच पाओगे तुम मेरी नजर से'
मतले के दोनों मिसरों में 'ज़र' की बंदिश हो गई है,देखियेगा ।
'ग़लती तो हुआ करती है दुनिया में बशर से'
इस मिसरे में 'ग़लती' का वज़्न 112 होता है, "लग़ज़िश" कर सकते हैं ।
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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