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राजनैतिक षड्यंत्र का शिकार हिंदी...संजीव वर्मा 'सलिल'

विशेष आलेख

      राजनैतिक षड्यंत्र का शिकार हिंदी 

  संजीव वर्मा 'सलिल'

          स्वतंत्रता के पश्चात् जवाहरलाल नेहरु ने 400 से अधिक विद्यालयों व महाविद्यालयों में संस्कृत शिक्षण बंद करवा दिया था। नेहरू मुस्लिम मानसिकता से ग्रस्त थे। (एक शोध के अनुसार वे अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के समय दिल्ली के कोतवाल रहे गयासुद्दीन के वंशज थे जो अग्रेजों द्वारा दिल्ली पर कब्जा किये जाने पर छिपकर भाग गए थे तथा वेश बदलकर गंगाधर नेहरु के नाम से कश्मीर में एक नहर के किनारे छिपकर रहने लगे थे।) नेहरु हिंदुत्व व् हिंदी के घोर विरोधी तथा उर्दू व अंगरेजी के कट्टर समर्थक थे। स्वाधीनता के पश्चात् बहुमत द्वारा हिंदी चाहने के बाद भी उनहोंने आगामी 15 वर्षों तक अंगरेजी का प्रभुत्व बनाये रखने की नीति बनाई तथा इसके बाद भी हिंदी केवल तभी राष्ट्र भाषा बन सकती जब भारत के सभी प्रदेश इस हेतु प्रस्ताव पारित करते। नेहरु जानते थे ऐसा कभी नहीं हो सकेगा और हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा कभी नहीं बन सकेगी। सही नीति यह होती की भारत के बहुसंख्यक राज्यों या जनसँख्या के चाहने पर हिंदी व् संस्कृत को तत्काल राष्ट्र भाषा बना दिया जाता पर नेहरु के उर्दू-अंगरेजी प्रेम और प्रभाव ने ऐसा नहीं होने दिया।

         भारत में रेडियो या दूरदर्शन पर संस्कृत में कोई नियमित कार्यक्रम न होने से स्पष्ट है कि भारत सरकार संस्कृत को एक करोड़ से कम लोगों द्वारा बोले जाने वाली मृत भाषा मानती है। वेद पूर्व काल से भारत की भाषा संस्कृत को मृत भाषा होने से बचाने के लिए अधिक से अधिक भारतीयों को इसे बोलना तथा जनगणना में मातृभाषा लिखना होगा। आइये, हम सब इस अभियान में जुड़ें तथा संस्कृत व् इसकी उत्तराधिकारी हिंदी को न केवल दैनंदिन व्यवहार में लायें अपितु नयी पीढ़ी को इससे जोड़ें। 

         निस्संदेह जनगणना के समय मुसलमान अपनी मातृभाषा उर्दू तथा ईसाई अंगरेजी लिखाएंगे। अंगरेजी के पक्षधर नेताओं तथा अधिकारियों का षड्यंत्र यह है कि हिंदीभाषी बहुसंख्यक होने के बाद भी अल्पसंख्यक रह जाएँ, इस हेतु वे आंचलिक तथा प्रादेशिक भाषाओँ / बोलियों को हिंदी के समक्ष रखकर यह मानसिकता उत्पन्न कर रह हैं कि इन अंचलों के हिंदीभाषी हिंदी के स्थान पर अन्य भाषा / बोली को मातृभाषा लिखें। सर्वविदित है कि ऐसा करने पर कोई भी आंचलिक / प्रादेशिक भाषा / बोली पूरे देश से समर्थन न पाने से राष्ट्रभाषा न बन सकेगी किन्तु हिंदीभाषियों की संख्या घटने पर अंगरेजी के पक्षधर अंगरेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान छेड़ सकेंगे। 

         इस षड्यंत्र को असफल करने के लिए हिंदी भाषियों को सभी भारतीय भाषाओँ / बोलिओँ को न केवल गले लगाना चाहिए, उनमें लिखना-पढ़ना भी चाहिए और हिंदी के शब्द-कोष में उनके शब्द सम्मिलित किये जाने चाहिए। जिन भाषाओँ / बोलिओँ की देवनागरी से अलग अपनी लिपि है उनके सामने संकट यह है कि नयी पीढ़ी हिंदी को राजभाषा होने तथा अंगरेजी को संपर्क व रोजगार की भाषा होने के कारण पढ़ता है किन्तु आंचलिक भाषा से दूर है, आंचलिक भाषा घर में बोल भले ले उसकी लिपि से अनभिज्ञ होने के कारण उसका साहित्य नहीं पढ़ पाता। यदि इन आंचलिक / प्रादेशिक भाषाओँ / बोलिओँ को देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो न केवल युवजन अपितु समस्त हिंदीभाषी भी उन्हें पढ़ और समझ सकेंगे। इस तरह आंचलिक / प्रादेशिक भाषाओँ / बोलिओँ का साहित्य बहुत बड़े वर्ग तक पहुँच सकेगा। इस सत्य के समझने के लिए यह तथ्य देखें कि उर्दू के रचनाकार उर्दू लिपि में बहुत कम और देव्मगरी लिपि में बहुत अधिक पढ़े-समझे जाते हैं। यहाँ तक की उर्दू के शायरों के घरों के चूल्हे हिंदी में बिकने के कारण ही जल पाते हैं।                          

         संस्कृत और हिंदी भावी विश्व-भाषाएँ हैं। विश्व के अनेक देश इस सत्य को जान और मान चुके हैं तथा अपनी भाषाओँ को संस्कृत से उद्भूत बताकर संस्कृत के पिंगल पर आधारित करने का प्रयास कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि जिस अंगरेजी के अंधमोह से नेता और अफसर ग्रस्त है वह स्वयं भी संस्कृत से ही उद्भूत है। 

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Comment by sanjiv verma 'salil' on January 17, 2013 at 2:54pm

मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी) छंद

संजीव 'सलिल'

भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.

**************


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 17, 2013 at 4:04am

//रामविलास शर्मा जी जिस वैचारिक खेमे से हैं, उसकी ही बात करें- समझा जा सकता है किन्तु उस खेमे के बहार के लोगों का मौन या दोहरा आचरण कैसे समझा जाए.//

बात शतप्रतिशत सही है. डॉ.शर्मा के वैचारिक खेमे की बात पर कुछ कहने से मैं रह गया था.  शैक्षिक जगत में इस तरह के विचारों की जड़ को तिल-तिल खाद और बूँद-बूँद पानी डाल कर सतत जिलाने का कार्य जिस तरह से पचास के दशक में हुआ वह कार्य सत्तर के दशक तक आते-आते एक महायज्ञ का रूप ले लिया. शिक्षा, शैक्षिक परिसर और पत्रकारिता का अर्थ ही लाल रंग-संपोषित मानसिकता हो गयी. विद्यालय ही नहीं विश्वविद्यालयों की श्रेणियाँ बनीं जहाँ एक विशेष वैचारिक साँचे में ढले समुदायों की ऐसी-ऐसी पौध खड़ी हुई, तथाकथित उच्च-शिक्षित लोगों का और विशेषकर मीडिया का ऐसा विशाल वर्ग खड़ा हुआ जो सोच, समझ और संप्रेषण के लिहाज से हिन्दी-हिन्दु-हिन्दुस्तान की अवधरणा से ऐसे बिदकता है मानों विगत का कोई हौव्वा या भूत उन्हें छू गया हो. 

लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि इस षड्यंत्र को बूझने-जानने वाले समुदायों और वैसे विचारकों ने न अपनी उस तरह की एकजुटता दिखायी न उन लाल-रंगियों के खिलाफ़ कोई विन्दुवत् प्रहार ही किया जो सोच-समझ-संप्रेषण से भारतीय विचार से न सिर्फ़ विलग हैं, बल्कि हाइ-फाइ बातें करते हुए नये-नये शिक्षितों,  विशेषकर युवाओं को, खूब आकर्षित भी करते हैं. आज स्थिति यह है कि हिन्दी-हिन्दु-हिन्दुस्तान की बातें करने वालों ने अपना मुँह खोला नहीं कि एक पूरा तंत्र उस खुले मुँह में तेज़ाबी पानी डालने के लिए समवेत रूप में हुआँ-हुआँ कर उठता है.

यह भी उतना ही सत्य है कि अमेरिका द्वारा अपनी सर्वग्राही-पैशाचिक व्यावसायिकता को संतुष्ट करने के फेर में हिन्दी अधिक प्रसार पाती दिख रही है. हिन्दी को अपनाना अमेरिका जैसे व्यावसायिक देशों की व्यावसायिक विवशता अधिक है और उस कारण हिन्दी का भला भले होता जाये. लेकिन हिन्दी-उत्थान का कार्य बैसाखियों या बाइ-प्रोडक्ट के लिहाज से नहीं हो सकता, बल्कि इस तरह के कार्य को जन-समुदाय की सोच की मुख्य धारा में लाना ही होगा. इसी क्रम मे ऐसे मंचों की आवश्यकता अपरिहार्य हो जाती है जहाँ हिन्दी के व्यापक उत्थान की सोच के मद्देनज़र ’सीखने-सिखाने’ की परिपाटी को बुलंद किया जा रहा है.

कहना न होगा कि अमेरिका के इस प्रयास के काट के रूप में धूर्त तंत्र अब ऐसे-ऐसे समुदाय खड़े कर या खड़े करवा रहा है जो आंचलिक भाषाओं के उन्नयन के नाम पर हिन्दी के खिलाफ़ विष-वमन कर रहे हैं. तर्क यह कि हिन्दी के कारण आंचलिक भाषाओं का विकास रुक गया.  अब हिन्दी विरोध इन समुदायों का नया शगल है, चाहे ऐसे समुदाय अवधी के हित की बातें करते दीख रहे हैं या भोजपुरी या मैथिली या राजस्थानी की.

आंचालिक भाषाओं का विकास हो, खूब विकास हो, यह हिन्दी के हित में ही है. किन्तु एक बात जो समझमें नहीं आती वो ये है कि स्वयं अंग्रेज़ी के रेस में खड़ी ’लंगड़ी’ हिन्दी किसी ज़मीनी भाषा का कोई अहित कैसे कर सकती है ? हिन्दी तो स्वयं ही अपनी अस्मिता के लिए ज़द्दोज़हद कर रही है.  यह बात आंचलिक भाषाओ का परचम उठाये इंकलाबी युवाओं को जितनी जल्दी समझ में आ जाय उतना ही श्रेयस्कर.

अस्तु

Comment by sanjiv verma 'salil' on January 16, 2013 at 10:48pm

राजेश जी, सौरभ जी
आपका आभार शत-शत.
रामविलास शर्मा जी जिस वैचारिक खेमे से हैं, उसकी ही बात करें- समझा जा सकता है किन्तु उस खेमे के बहार के लोगों का मौन या दोहरा आचरण कैसे समझा जाए.
नेहरु का उल्लेख मेरा उद्देश्य नहीं है. वह असत्य भी नहीं है. हिंदी को जगवानी बनना ही है. उसका पथ कोइ अवरुद्ध नहीं कर सकता.
अंतरजाल पर हिंदी को लाने का श्रेय भारत सरकार को है या अमेरिका की व्यापारिक जरूरतों को?  भारत सरकार तो एक की बोर्ड बनाने का कानून भी नहीं बना सकी. यदि सभी कंपनियों के लिए अंगरेजी की तरह हिंदी का भी एक ही की बोर्ड बनाना अनिवार्य होता तो हमें रोमन में टाइप कर हिंदी लिखने की जरूरत नहीं होती. अस्तु...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 16, 2013 at 7:49pm

जिन कुचक्रों में फँसकर एक भाषा जो भारतीय स्वतंत्रता मुहिम के लम्बे अरसे के दौरान पूरे देश में संपर्क सूत्र के रूप में स्थापित हो चुकी थी, लगातार विवादित होती चली गयी, की आपने संक्षेप में ही सही बढिया विवेचना प्रस्तुत की है.

जिन विन्दुओं को यहाँ उठाया गया है वो तो सतह पर हैं, आदरणीय. इन विन्दुओं के पीछे या साथ-साथ कई-कई और कारण भी हैं जो इतने महीन हैं कि उनपर सामान्यतया ध्यान भी नहीं जाता. साथ ही, उन कारणों का रूप इतना व्यापक है कि उनके विरुद्ध बोलना एक बड़े वर्ग को झकझोर डालता है.

इसी में से एक कारण है मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. रामविलास शर्मा का एक विशेष दृष्टि लिए समस्त शोध-कार्य. डॉ.शर्मा द्वारा हिन्दी के सापेक्ष क्षेत्रीय भाषाओं को दोयम दर्ज़े का स्थान दे कर बोलियों के रूप में इंगित करना और हिन्दी के अजस्र श्रोत को काटना या हिन्दी के विरुद्ध उन्हें खड़ा करना ऐसा ही कुचक्र है जो आज समझ में आ रहा है. तकनीकी हिन्दी शन्दावलियों के नाम पर जो ग़ैर-ज़िम्मेदाराना कार्य हुआ है वह हिन्दी प्रयोग के प्रति उबकाई ही लाता है. यह हुआ प्रयास भले ही कितना हास्यास्पद लगे किन्तु मैं इसे एक षड्यंत्र का हिस्सा ही मानता हूँ.

नेहरु के ऊपर कहे आपके वाक्य इस लेख का हिस्सा न होते तो बेहतर होता. क्योंकि वे विचारों को विन्दुवत् रखने से भटकाते हैं. वैसे तथ्य गलत भी नहीं है. कोतवाल ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी और फ़िरोज़ गंधी (गांधी नहीं) का किस्सा अब व्यापक हो चुका है. लेकिन इस आलेख का हिस्सा नहीं होना था.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 16, 2013 at 9:19am

आपने सही कहा आदरणीय सलिल  जी ये बहुत बड़ा राजनीतिक षड्यंत्र है हिंदी और संस्कृत भाषा को उखाड़ फेंकने का उसी नेहरु का परिवार देश को भी विलुप्त  करने की दिशा में सक्रीय है पर धन्य है नेट का युग जिससे देश का युवा वर्ग एक जुट होकर इन सब  का सामना कर रहा है हिंदी फिर से अपने पैर जमा रही है ,संसद में एक बर्तन भी खड़कता है तो पूरा हिन्दुस्तान जान  जाता है बस अब इस मुहीम को तेज करने की जरूरत है हिंदी को राष्ट्र भाषा  का दर्जा  दिलवाना है वक़्त तो लगेगा पर ये जरूर होगा ,बहुत बहुत बधाई आँखे खोल देने वाले आपके इस आलेख हेतु 

Comment by sanjiv verma 'salil' on January 15, 2013 at 8:45pm

प्रदीप जी, अशोक जी, अलबेला जी, राजेश जी
हार्दिक धन्यवाद.
नेहरु की हिंदी विरोधी मानसिकता अहिन्दी भाषी प्रान्तों की संरचना और त्रिभाषा फोर्मुले के रूप में सामने आई थी, जो दक्षिण एके प्रान्तों में हिंदी विरोध का कारण बनी थी और बहुत बड़े पैमाने पर विध्वंस हुआ था. कृपया इतिहास देखें. स्वयं निराला जी ने नेहरु का विरोध किया था और उन पर व्यंगात्मक कविता भी लिखी थी. 

Comment by राजेश 'मृदु' on January 15, 2013 at 5:45pm

आदरणीय आचार्य जी हिंदी बढ़नी चाहिए यहां तक मैं आपके साथ हूं परंतु नेहरू जी की मानसिकता या उनकी जड़ उखाड़ने से हिंदी का संबंध जोड़ नहीं पाया । यह आह्वान जहां एक ओर हमें आपके साथ चलने को प्रेरित करता है वहीं दूसरी ओर इसमें की गई टीका-टिप्‍पणी जिसका हिंदी से कोई लेना-देना नहीं, सच पूछें तो मुझे हजम नहीं हो रहा । हर भाषा बढ़नी चाहिए क्‍योंकि हर भाषा कहीं ना कहीं एक दूसरे पर निर्भर हैं अपनी इस सोच के साथ केवल आक्षेप वाले खंड पर अपना विरोध दर्ज करा रहा हूं । हिंदी किसी भी षडयंत्र का कभी शिकार नहीं रही यदि होती तो यही भारत सरकार यूनिकोड के लिए संसाधन मुहैया नहीं कराती, सादर

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 14, 2013 at 10:40pm

हिंदी को बढ़ावा देने के लिए किया गया सुन्दर प्रयास.सच है कांग्रेस शासन में गांधी परिवार का ही बोलबाला रहा है. नेहरू जी के कृत्यों पर इसीकारण पर्दा पड़ा रहा. देश से षडयंत्र कर संस्कृत कि बिदाई करना चिंता का विषय है. जन जन में चेतना जगानी ही होगी. सारथक आलेख. आभार.

Comment by Albela Khatri on January 14, 2013 at 10:22pm

जय हो जय हो

अत्यंत सार्थक और अभिभूत करने वाला आलेख
  इस षड्यंत्र को असफल करने के लिए हिंदी भाषियों को सभी भारतीय भाषाओँ / बोलिओँ को न केवल गले लगाना चाहिए, उनमें लिखना-पढ़ना भी चाहिए और हिंदी के शब्द-कोष में उनके शब्द सम्मिलित किये जाने चाहिए

___सादर बधाई

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 14, 2013 at 6:50pm

आदरणीय सलिल जीसादर अभिवादन 

आपके इस लेख में प्रस्तुत विचारों को जानकार कितनी खुशी हो रही है शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता. मै भी यही सन्देश देता रहता हूँ. अपने इस मंच पर भी एक ही  गेट रखा जाए. बाद में उन्हे उनके कमरों में सजा दिया जाये. 

जिस व्यक्ति का जिक्र हिंदी विकास में बाधा का किया है. कौन सी जगह कोई अच्छा काम किये हैं वो. 

बधाई 

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