चाँद नगर को जाते-जाते,जिनका अश्व भटकता है;
उडुगण की उजली बस्ती में,चुँधियाया सा रुकता है।
स्वर्णकिरण की राहों पर जो,चलते हुए झिझकते हैं;
जिनके स्वप्न जहाँ विस्फारित,होते वहीं पिघलते हैं।
नीरदमाला बन कर उनके,निःश्वासों में गलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
जग में चौराहे कितने हैं,कितनी परम्पराएँ भी;
बनती-मिटती बस्ती भी है,अडिग अट्टालिकाएँ भी।
जीवन भर दोराहे पर जो,पथ-निर्धारण करते हैं;
आशा की कच्ची गागर में,सदा हताशा भरते हैं।
मैं उनको राह दिखाऊँगा,तुम्हें उजाला बनना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
आँखों में कितनी ललक भरी,प्याला लेकिन ख़ाली है;
जग की मधुशाला के भीतर,मधुबाला मतवाली है।
पहले से ही जो बेसुध हैं,उनकी प्यास बुझाती है;
पलक बिछाए आकुल हैं जो,उनसे आँख चुराती है।
ऐसों का चषक मुझे बनना,तुम्हें सुरा में ढलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
नहीं असम्भव चलते-चलते,ज़्यादा दूर निकल जाएँ;
खुली हवाएँ,भरी घटाएँ,परिचित बन कर सहलाएँ।
जिस चौखट की निर्जनता में,बस सूरज-चंदा आते;
उसी द्वार पे मुक्त कंठ से,हम दोनों सोहर गाते।
विक्षुब्ध कहीं मत हो जाना,तुमको यूँ ही पलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
वाणी की क्षमता चुक जाती,भाव निरन्तर भरते हैं;
नई बहारें नित खिलती हैं,पात पुराने झरते हैं।
नयनों की कोरों में आख़िर,बाक़ी रहती नमी कहीं;
गहरे,सच्चे उद्गारों में,साफ झलकती कमी कहीं।
सब मौनों की भाषा बन कर,स्वर में तुम्हें बदलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
सबको अपनी ही धुकधुक में,मीठी बोली पढ़नी है;
इन बेगाने बुतख़ानों में,ख़ुद की प्रतिमा गढ़नी है।
साधन संचित कर सकता है,जिसकी आदत ही छल है;
आँसू को मुस्कान बनाना,लेकिन अपना कौशल है।
निर्भीकों के अन्तरतम में,धूनी बन के जलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥
मौलिक व अप्रकाशित।
Comment
सुंदर और प्रभाव शाली भावो की प्रस्तुति!!
इस सुंदर प्रस्तुति पर ह्रदय से बधाई लीजिये आदरणीय रवि जी!!
"सुंदर रचना प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई..आदरणीय..रवि जी
इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको ढेरों बधाई, सादर
मित्रवर आपकी रचना के भाव इतने सुन्दर और गहरे होते हैं कि बस मन भर आता है पढ़ते पढ़ते, बेहतरीन पंक्तियाँ. सोहर शब्द सुने हुए जमाना हो गया है शायद भूल ही गया था पुनः विस्मरण कराने हेतु हार्दिक आभार इस रचना पर ढेरों बधाई स्वीकारें.
वाणी की क्षमता चुक जाती,भाव निरन्तर भरते हैं;
नई बहारें नित खिलती हैं,पात पुराने झरते हैं।
नयनों की कोरों में आख़िर,बाक़ी रहती नमी कहीं;
गहरे,सच्चे उद्गारों में,साफ झलकती कमी कहीं।
सब मौनों की भाषा बन कर,स्वर में तुम्हें बदलना है।
मेरी कविते! साथी हो कर,हमको दूर निकलना है॥...........बहुत सुंदर .
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online