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कह के तो नहीं गया था, -पर सामान रह गया था

कह के तो नहीं गया था,

-पर सामान रह गया था

 

समय का ऐसा सैलाब,

-वजूद भी बह गया था

क्या आए हो सोच कर,

-हर चेहरा कह गया था

बाद रोने के यों सोचा,

-घात कई सह गया था

गिरा, मंज़िल से पहले,

-निशाना लह गया था

पुरजोर कोशिश में थी हवा,

-मकां ढह गया था

तुम आए, खैरमकदम!

-वरक मेरा दह गया था?

 

मौलिक है, अप्रकाशित भी

सुधेन्दु ओझा

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Comment

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Comment by जयनित कुमार मेहता on June 12, 2016 at 10:07pm
आदरणीय ओझा जी, अच्छी रचना के लिए बधाई।

आदरणीय सौरभ जी, ये सोचकर मुझे बहुत ख़ुशी और गर्व की अनुभूति होती है कि मैं ओबीओ का सदस्य हूँ, और आपकी मित्र-सूची में मेरा भी एक छोटा-सा स्थान है।

ऐसे अमूल्य 'लाइव' साहित्यिक-संवाद का आनंद ओबीओ के अलावा और कहाँ मिल सकता है?
नमन है साहित्य को समर्पित ओबीओ को और इससे जुड़े सज्जनों को, जो नए कलमकारों को ठीक से कलम चलाना सिखाते हैं।
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 12, 2016 at 8:55pm

//मंच पर जो संवाद उभरते हैं उनमें केवल नाम होता है, आयु नहीं //

इसी कारण सभी सदस्यों से निवेदन हुआ करता है कि वे परिचय हेतु अपना हालिया फोटो अवश्य लगायें. इससे दो लाभ होते हैं, आदरणीय. एक, कि अगले की एक व्यावहारिक. भले ही आभासी, इमेज मन में बन जाती है और वह ’निराकार परमब्रह्म’ नहीं रह जाता. उसकी आयु का आभास भी हो जाता है. तो कोई उच्छृंखल सदस्य उसके प्रति वाही-तबाही बकने के पहले दस बार सोचता है. फिर भी यदि कोई वाही-तबाही बकता दिखता है, तो उसे चेतावनी दी जाती है. फिर भी उसके नहीं मानने पर उसे दुरदुराकर हकाल दिया जाता है.

दो, कि, वह अधिक आत्मीय प्रतीत होता है. यह वर्चुअल साइकोलोजिकल केस ही सही, मगर ऐसा अवश्य होता है. 

//कंप्यूटर ठीक करने के दौरान किसी से मेरी ओबीओ पर पुरानी सदस्यता डिलीट हो गई थी। उसमें मैंने कई रचनाएँ पोस्ट की हुई थीं। गूगल+ पर जब लोग उसे एक्सेस नहीं कर पाए और उन्होंने बताया तो मैंने दुबारा एकाउंट बनाया //

आप ऐडमिन से संपर्क करें और शिकायत और सुझाव वाले समूह में अपनी बातें रखें. आपकी पुरानी मेल आइ-डी होगी तो आपकी समस्या का निराकरण एक हद तक संभव है. 

साहित्यिक पत्रिकाओं के सामने माया, मनोहर कहानियाँ जैसी पत्रिकाओं का चलना कई बातों पर निर्भर करता है. आज भी स्थिति बदली नहीं है. लेकिन उसका आयाम अवश्य बदला है. अब किसी अभ्यासी रचनाकार का भी प्रकाशित होना सरल हो गया है. यही कारण है कि अब के समय में किसी को रचनाकर्म के प्रति आग्रही और सचेत बनाना अधिक कष्टकर है, आदरणीय. अभ्यासियों के भी प्रशंशक हैं आज ! उनकी फैन-फौलोइङ है ! उनकी हर ऐरी-ग़री रचना पर बेतुके रूप से वाह-वाह करने वाले मौजूद हैं !  

आपने कवि-सम्मेलन की बात कर बहुत कुछ कह दिया है. शैल चतुर्वेदी, प्रदीप चौबे, जैमिनी हरिवाणवी, रामरिख मनहर, मधुप जी, सुरेन्द्र शर्मा आदि आज के कपिल शर्मा,  कृष्णा, सुदेश, भारती आदि के पूर्वज थे. इन्स्टण्ट मनोरंजन दे सकने वाले. इससे अधिक और क्या कहूँ ?

सादर  

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 12, 2016 at 8:39pm
यह बेहतरीन रचना व आप दोनों की सार्थक चर्चा से बहुत प्रभावित हुआ हूँ और साहित्य विषयांतर्गत मेरा ज्ञानवर्धन हो सका है। हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और आभार आदरणीय सुधेन्दु ओझा जी व आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी।
Comment by SudhenduOjha on June 12, 2016 at 6:34pm

आदरणीय सौरभ जी,
आपके संवाद को अधो-क्रम से लेता हूँ।


मंच पर जो संवाद उभरते हैं उनमें केवल नाम होता है, आयु नहीं। आप शास्त्र-सम्मत कक्षा का संचालन करते हैं, गुरु नहीं तो गुरुवत होते हैं अतः ‘आदरणीय’ सम्बोधन के पात्र हैं। इसे अन्यथा मत लीजिएगा।
ओबीओ भले ही नेट-युग में नया हो किन्तु इस क्षेत्र में वह बहुत प्रौढ़ कार्य कर रहा है। आप जो कुछ भी कर रहे हैं वह समय की मांग है। कविता के कठिन रास्ते और उसके मर्म को समझने वाले कुछ कम ही रह गए हैं। आप उस मर्म को समझते हैं तभी उसे बाँट भी रहे हैं।

ज़िक्र तो नहीं करना चाहता था किन्तु संदर्भ बन रहा है सो आवश्यक लगता है। एक बार कवि सम्मेलन के आयोजन के दौरान स्वर्गीय रमानाथ अवस्थी जी को निमंत्रित करने गया था। उन्होंने पूछ लिया और कौन-कौन आ रहे हैं। मैंने कहा नीरज जी, बैरागी जी, वे सिर हिलाते रहे। फिर मैंने अशोक चक्रधर, सुरेन्द्र शर्मा का नाम लिया तो वे बोले, इस बार तो चले चलता हूँ पर आइन्दा मुझे चुट्कला कहने वालों के साथ ना बुलाइएगा। मंच आज-कल ऐसा होगया है। चुटकलों को कविता समझा जा रहा है। ऐसे में ओबीओ का प्रयास और ज़रूरी बन गया है। यह समस्या पुरानी है। नवनीत, जाहन्वी, सारिका, कादंबिनी जैसी पत्रिकाओं से कहीं अधिक मनोहर कहानियाँ पढ़ी जाती थी।

“आपकी उम्र इतनी नहीं है, कि आप असहज होने लगें, आदरणीय.” नहीं मैं कत्तई असहज नहीं हूँ। यह मानव स्वभाव है कई बार आयु, ज्ञान, धन-संपत्ति और यश के होते हुए व्यक्ति अपनी संप्रेषणता में ऐसा कुछ भाव ले आता है जो ‘स्नोबिश’ लगता है। ऐसे भाव से बचने केलिए यह कह देना कि किसी भी त्रुटि केलिए मुझे माफ करें, सर्वथा उचित ही है। बाबा तुलसी दास जी ने कहा ही है :
ऐसा कोऊ नहिं जन्मा जग मांही। प्रभुता पाय जाय मद नांही॥ (हम सब मनुष्य ही हैं)

“मैंने पूर्व में कुछ रचनाएँ पोस्ट की थीं, वापस लौटा हूँ तो सब नदारद मिली हैं, यह उसकी खातिर लिखा था। एकदम पत्रकारिता पद्य //
मैं कुछ नहीं समझ पाया आदरणीय. इसे स्पष्ट करें.”

वस्तुतः कंप्यूटर ठीक करने के दौरान किसी से मेरी ओबीओ पर पुरानी सदस्यता डिलीट हो गई थी। उसमें मैंने कई रचनाएँ पोस्ट की हुई थीं। गूगल+ पर जब लोग उसे एक्सेस नहीं कर पाए और उन्होंने बताया तो मैंने दुबारा एकाउंट बनाया। अब वो मिल नही रहीं, इसलिए यह सब लिखना हुआ। अगर मिल जाएँ तो डलवा दीजिएगा।

सादर,
सुधेन्दु ओझा


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 12, 2016 at 5:34pm

आदरणीय सुधेन्दु जी,

आपका प्रस्तुत विह्वल उद्घोष वास्तव में आत्मीय लगा. आपने जिस तरह से कविता के आंगन में व्याप गये प्रदूषण की चर्चा की है वह आपको इस विधा का शुभचिंतक बताने केलिए काफ़ी है. मैं प्रणम्य और विभूतियों के प्रति कोई बलात कुशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहता. क्योंकि जिस दौर के वे लोग थे और उन दिनों जैसी मानसिकता काम कर रही थी, उसमें उनसे वही कुछ होना अपरिहार्य था. वही उन विभूतियों ने किया. अब उस सारे किए को मेटा नहीं जा सकता. उनका किया सारा कुछ अब साहित्य के इतिहास का हिस्सा बन चुका है.

आदरणीय मुझे प्रसन्नता है कि आप गेय रचनाओं के आग्रही हैं जिसका अनुमोदन आजका साहित्य समाज करता है. करने लगा है. आजका एक बड़ा वर्ग ग़ज़लों, गीतों, नवगीतों, छान्दसिक रचनाओं. गेय कविताओं और मुक्तछन्दों की बात करता हुआ सरस अभिव्यक्तियों का पिपासु है. ओबीओ ने किसी एक विधा के प्रति नहीं, लगभग सभी पद्य, और गद्य भी, विधाओं के प्रति सम दृष्टि रखी है. गद्य की कई विधाएँ आकार में बड़ी होने के कारण नेट के पटलों पर चर्चाओं के संदर्भ में अधिक व्यावहारिक नहीं जान पड़तीं. फिरभी जो बन पड़ता है हम अपनी सीमाओं के तहत कर रहे हैं. 

//मैंने पूर्व में कुछ रचनाएँ पोस्ट की थीं, वापस लौटा हूँ तो सब नदारद मिली हैं, यह उसकी खातिर लिखा था। एकदम पत्रकारिता पद्य //

मैं कुछ नहीं समझ पाया आदरणीय. इसे स्पष्ट करें.

//मुझसे इस वय में भी बहुत गलतियाँ हो जाती  हैं, माफ कर दीजिएगा //

आपकी उम्र इतनी नहीं है, कि आप असहज होने लगें, आदरणीय.

हम सभी ने विभिन्न विधाओ पर अपना अभ्यास मात्र तीन-चार वर्षों पूर्व ही शुरु किया था. अब भी सीखने का दौर बना हुआ है. हम रोज़ कुछ न कुछ सीखते रहते हैं. आप सतत अभ्यासकर्म में रत रहें. आपसे अपेक्षा यही है,

दूसरे, पुनः, इस मंच पर समवयस्कों को आदरणीय और अपेक्षाकृत कनिष्कों या अत्यंत अनुजों को भी भाई कहने की परिपाटी है. इसके अपने तात्पर्य हैं.

सादर

 

Comment by SudhenduOjha on June 12, 2016 at 5:13pm

प्रिय सौरभ जी यह ओबीओ से शिकायत है।

मैंने पूर्व में कुछ रचनाएँ पोस्ट की थीं, वापस लौटा हूँ तो सब नदारद मिली हैं, यह उसकी खातिर लिखा था। एकदम पत्रकारिता पद्य। जैसा आप लोग आयोजन करते हैं।  

आदरणीय, कविता छंद से अकविता की तरफ बढ़ गई। दुर्गति कर के प्रगतिवादी हुई। धूमिल, नागार्जुन सरीखे रचनाकारों के तमाम अपशब्द और गालियों वाले गद्य कविता समझे जाने लगे और स्नातकोत्तर के पाठ्यक्रम में आगए। जाने कैसे-कैसे रचनाकारों के मानसिक प्रवाद (मेंटल डिसचार्ज) पर कुछ खेमे वर्षों तक उसका यशगान करते रहते हैं। हायकू-खायकू ले आए ऐसे में पारंपरिक और शास्त्रीयता का वजूद???

मैं आपका प्रतिकार हरगिज़ नहीं कर रहा। मुझे बहुत-बहुत प्रिय है आपका विचार, क्योंकि वह मेरा भी है।

आपके प्रयासों की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम ही है क्योंकि आप उस ज्ञान को निशुल्क आलोकित करने का प्रयास कर रहे हैं और सुलभ हैं जिस केलिए हम सत्तर के दशक में पुस्तकालयों की खाक छानते थे। तिस पर भी इस विषय की पुस्तकें नहीं मिलती थीं। कभी भवानी दादा (भवानी प्रसाद मिश्र), शेरजंग गर्ग जी तो कभी संतोषानन्द के घर के चक्कर लगते थे। ओबीओ एक सार्थक और श्लाघनीय प्रयास है। जो भी मनुष्य हिन्दी-उर्दू में कविता करना और समझना चाहता है उसके लिए इस मंच से जुड़ना अनिवार्य है। हर विद्यालय और कॉलेज में ओबीओ का प्रचार होना चाहिए।

क्रिकेट और अध्ययन के चलते, लय और मीटर के समीप नहीं पहुँच पाया। पत्रकारिता मुझे गद्य की दिशा में लेगई। पद्य ‘स्वांतः सुखाय’ होकर रह गया। आपके मंच का उपयोग कर के आप लोगों तक बात-चीत केलिए पहुंचता हूँ, आपका विचार, आपकी टिप्पणी सब से बड़ा परितोष है इसे बराबर बनाए रखिएगा।

मुझसे इस वय में भी बहुत गलतियाँ हो जाती  हैं, माफ कर दीजिएगा। आपने जो अलख जगाया हुआ है उसमें यदि किसी भी प्रकार का सहयोग कर पाया तो धन्य समझूँगा।

सादर,

सुधेन्दु ओझा


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 12, 2016 at 4:20pm

इस प्रयोग पर हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीय. किन्तु, क्या उचित न होगा कि आप पारम्परिक रचनाओं पर सार्थक अभ्यास कर रचनाकर्म के मूलभूत नियमों से वाकिफ़ हो लें ?

शुभ-शुभ

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