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ये भँव तिरी तो, कमान लगे
तिरे ये नयन, दो बान लगे
कहीं न रुके, रमे न कहीं
इसे तू ही तो, जहान लगे
मैं जब से मिला हूँ तुम से, मिरी
हरेक अदा जवान लगे
अमिय है तिरी अवाज़ सखी
तू गीत लगे है गान लगे
है खोजती महज़ तुझे ही निगा'ह
न और कहीं मिरा धियान लगे
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बाऊजी इस ग़ज़ल को सुधारता हूँ, शीघ्र ही
आद0 पंकज कुमार मिश्र जी सादर अभिवादन। ग़ज़ल का अच्छा प्रयास किया है आपने। बधाई स्वीकार कीजिये। शेष आद0 समर साहब की इस्लाह तो बाकमाल
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,बह्र-ए-वाफ़िर में ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन अभी कुछ कमियाँ हैं,बहरहाल बधाई स्वीकार करें ।
'ये भँव तिरी तो, कमान लगे
तिरे ये नयन, दो बान लगे'
ऊला मिसरे में एक ही भँव का ज़िक्र है,दूसरी कहाँ है?
सानी मिसरे में 'नयन' "दो बान" बहुवचन हैं इसलिए रदीफ़ 'लगे' कि बजाय "लगें" हो रही है ।
'कहीं न रुके, रमे न कहीं
इसे तू ही तो, जहान लगे'
"किसे"?,इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है ।
'अमिय है तिरी अवाज़ सखी'
इस मिसरे में 'अवाज़' ग़लत है,सहीह शब्द है "आवाज़",देखियेगा ।
'है खोजती महज़ तुझे ही निगा'ह
न और कहीं मिरा धियान लगे'
इस शैर के ऊला में "महज़" शब्द का वज़्न 21 है,और सानी में "ध्यान" शब्द को 'धियान' करना कहाँ तक उचित है,आप बहतर समझते हैं ।
एक काम की बात,ग़ज़ल का प्रयास जल्द बाज़ी में कभी नहीं करना चाहिए,इसका हमेशा ख़याल रखें ।
बहुत बढ़िया गजल है। मन प्रसन्न हो गया।
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