आदरणीय साथिओ,
Tags:
Replies are closed for this discussion.
आ. कनक जी, अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
आपका हार्दिक आभार आदरणीय..।
प्रदत्त विषय पर बहुत बेहतरीन और सारगर्भित लघुकथा लिखी है आपने आ कनक हरलालका जी. बहुत बहुत बधाई इस सटीक रचना के लिए
आदरणीय कनक हरलालका जी आप ने शतरंज के द्वारा बहुत ही सुंदर और सार्थक लघुकथा कहीं हैं ।आप को हार्दिक बधाई इस बेहतरीन लघुकथा के लिए।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया दी।
आपका आभार आदरणीय।
हार्दिक बधाई आदरणीय कनक जी।बेहतरीन लघुकथा। प्रतीकात्मक शैली में प्रस्तुत सुंदर लघुकथा।आज की राजनीति पर उत्तम कटाक्ष।
सोच अपनी अपनी - लघुकथा -
"आइये जी, आपका खाना लग गया।"
सत्तर वर्षीय विनोद जी धीमे कदमों से आकर डायनिंग टेबल पर बैठ गये।
"आज आपकी मन पसंद दाल बनी है।"
विनोद जी ने प्लेट लेकर कटोरी में दो चम्मच दाल ही डाली थी कि वीना जी ने टोक दिया,"थोड़ी सी दाल मोनू के लिये भी छोड़ देना। उसे भी यह दाल बहुत पसंद है।आज लेट हो गया।वैसे रोजाना डिनर तक आ जाता था।"
विनोद जी ने अपनी कटोरी की दाल डोंगे में वापस उलट दी।
"अरे आपने यह क्या किया? थोड़ी सी तो ले लो।मोनू सारी थोड़ी खायेगा।"
"अब क्या पता कितनी खायेगा। उसे दाल चावल पसंद हैं तो दाल ज्यादा चाहिये। मैं तो रात को केवल दो ही चपाती खाता हूं। सब्ज़ी से खालूंगा।"
"आजकल आप छोटी छोटी सी बात का बुरा मान जाते हो।"
"अरे नहीं वीना। इसमें बुरा क्या मानना।"
"आप ना बहुत बदल गये हो।"
"उम्र और समय के साथ सभी बदल जाते हैं।"
"कैसी बात करते हो? मैं तो बिलकुल भी नहीं बदली।"
"ऐसा तुम्हें लगता है। जबकि हक़ीक़त यह है कि नारी जाति में जीवन भर बदलाव आते हैं।यह उसका कुदरती स्वभाव है ।"
"ऐसा कैसे कह सकते हो आप?"
"स्त्री को प्रकृति ने स्वभाव से ही परिजीविता बनाया है।"
"क्या मतलब है इसका? मैं कुछ समझी नहीं।"
"देखो, नारी जन्म से ही अपने परिजनों पर आश्रित रहती आई है। बचपन में उसका झुकाव पिता की ओर होता है।युवा होने पर उसकी संपूर्ण निष्ठा पति की तरफ होती है।लेकिन बुढ़ापे में उसे पुत्र अधिक प्रिय होते है।क्योंकि स्त्री सदा ही सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक सुरक्षा के सहारे अपने परिजनों में तलाशती है।जो कि उम्र के दौर के साथ बदलते रहते हैं|"
तभी मोनू के आने से उनके वार्तालाप में व्यवधान आ गया।
"आजा बेटा, खाना खाले, हम लोग तेरा ही इंतज़ार कर रहे थे।"
"नहीं माँ, आप लोग खालो। मैं बाहर से खाकर आया हूं।"
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
स्त्री के पुरुष पर आश्रित होने की बात कभी सही हुआ करती थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल रही हैं. और स्त्री को पराश्रित हमारे पुरुष समाज ने ही किया, उसे न तो आगे बढ़ने दिया और न ही उसे अपने मर्जी से जीने दिया. बहरहाल लघुकथा बढ़िया है और प्रभावित भी करती है, बधाई आ तेजवीर सिंह जी
हार्दिक आभार आदरणीय विनय जी।समय के साथ बदलाव आया है लेकिन अभी भी स्थिति पूर्ण रूप से बदली नहीं है।
परिवर्तन विषय को बखूबी परिभाषित करती इस लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें आ० तेजवीर सिंह जी.
हार्दिक आभार आदरणीय भाईजी योगराज प्रभाकर जी।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |