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भाई गणेश बाग़ी जी, वह लघुकथा भाई रवि प्रभाकर जी की है, जिसका शीर्षक है 'दंश' जो ओबीओ पर 24 जून 2014 को प्रकाशित हुई थी.
http://openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:552026
जी आदरणीय, स्पष्ट करने हेतु आभार।
गागर में सागर सी आपकी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आ. Namita Sunder जी
आदरणीया नमिता जी, बेहद तीखी कथा बन पड़ी है। हार्दिक बधाई
इस प्रभावशाली लघुकथा के लिये हार्दिक बधाई आदरणीया नमिता सुंदर जी।
फांस - लघुकथा -
"अरे शुक्ला साहब आप यहाँ? मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा अपनी आँखों पर।"
"विनोद बाबू, जीवन में कभी कभार अनहोनी भी हो जाती है।"
"लेकिन सर, आपका तो महल जैसा बँगला है।केवल चार प्राणी।आप पति पत्नी और बेटा बहू।"
"विनोद बाबू, रिश्तों में खटास आ जाय तो महल भी छोटे पड़ जाते हैं।"
"क्या बात कर रहे हैं सर? आपका तो पूरा परिवार उच्च शिक्षित है।आप आई ए एस थे तो मैडम भी सैक्रेटरी।बेटा भी डायरेक्टर है। उसे तो कंपनी मकान भी दे रही थी।लेकिन उसने इसीलिये मकान नहीं लिया कि वह बूढ़े माँ बाप को अकेले नहीं छोड़ना चाहता था।"
"विनोद बाबू नसीब बदलते देर नहीं लगती।"
"सर कब से हैं यहाँ? आज पहली बार देखा| मुझे तो करीब तीन साल हो गये।"
"अभी पिछले रविवार को ही आया था।"
"सर प्लीज बताइये ना, ऐसा क्या हुआ अचानक कि आपको वृद्धाश्रम में शरण लेनी पड़ी?"
"विनोद बाबू घर की बात घर से बाहर जाते ही बात का बत्तंगड़ बन जाता है।"
"सर मैं तो आपके घर का ही बंदा हूँ।आफ़िस में भी आपके साथ काम किया है।आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं।"
"भाई विनोद बुरा मत मानना, भरोसा शब्द से मेरा तो भरोसा ही उठ गया।"
"सर आपके दिल पर कोई गहरी चोट लगी है।बतायेंगे नहीं तो अंदर ही अंदर घुटते रहेंगे।सर बताने से मन हल्का हो जायेगा।"
"तुम ज़िद करते हो तो बताता हूँ लेकिन यह वादा करो कि यह बात तुम्हारे होठों से बाहर नहीं आनी चाहिये।"
"सर वादा पक्का वादा।"
"पिछले रविवार का किस्सा है। मैं सुबह किचन में अपने लिये चाय बना रहा था।नौकर चाकर तो सब आठ नौ बजे आते हैं। बहू भी किसी काम से किचन में अंदर आयी और एक स्टूल पर चढ़ कर टाँड़ से कुछ उतारने लगी।मुझसे बोली,"बाबूजी थोड़ा स्टूल पकड़ लीजिये, हिल रहा है।मैंने स्टूल पकड़ लिया।अगले ही पल बहू चीखते हुए मेरे ऊपर गिर पड़ी।मैं भी गिर पड़ा।बहू की चीख सुन कर मेरी पत्नी और बेटा भी दौड़ कर आ गये।उन लोगों के आते ही बहू मेरे ऊपर से उठ कर भाग गयी।मेरी पत्नी और बेटा मुझे संदेह पूर्ण नज़रों से घूर रहे थे।दोनों ने मेरी दलीलों को कोई तवज्जो ना देकर सुना अनसुना कर दिया| घर में पूरे दिन अनबोला पसरा रहा।ऊपर से बहू का रहस्य मय तरीके से चुप्पी साध लेना। मजबूरन शाम होते होते मैंने वृद्धाश्रम आने का निर्णय ले लिया।"
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
कैसे- कैसे स्वार्थ और उन्हें सिद्ध करने के कैसे- कैसे तरीके। आसान नहीं होता आदमी को समझना। अपनों के दंश से आहत मन की व्यथा को अच्छे से मुखर किया है। बधाई।
नमिता
हार्दिक आभार आदरणीय नमिता जी।
आ. भाई तेजवीर जी, एक अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।
आदाब। विषयांतर्गत बेहतरीन शीर्षक के इस बार आपने अपनी उम्दा शैली में चिरपरिचित कथानक को आकर्षक कथनोपकथन में प्रस्तुत किया है।
//भरोसा शब्द से मेरा तो भरोसा ही उठ गया।// का विचारोत्तेजक संदेश देती बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह जी। अंतिम भाग को लेकर भिन्न तरह से भी कम शब्दों में भी इसे आप कह सकेंगे।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी।
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