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ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक-66 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
नागरिक
' नागरिक...जी हां नागरिक ही कहा मैंने ', जर्जर भिखारी ने कहा।
'यहां क्या कर रहे हो?' सूट बूट धारी लोगों ने उसे घुड़का।
' अपना सच ढूंढ रहा हूं ।'
' मतलब?'
' नहीं समझे?'
' नहीं।समझा दो।'
' सच यानी अपने यहां का होने का प्रमाण साहिब।'
' तुम यहीं के हो?'
' पीढ़ियां गुजर गईं यहीं।'
' फिर प्रमाण क्या?'
' अपने हाकिमों को दिखाना होगा न।वरना कहां भीख मांगूंगा?'
' तुम्हारा मतलब भीख मांगने के लाइसेंस से है क्या?'
' हे हे हे...नहीं समझे फिर से।'
' ऐं..? सूटवाले बुदबुदाए।
' मतलब यहां का होने से है।भीख तो तुम भी मांग रहे हो।'
' क्या?' गुस्से में सवाल किया गया।
' भिखारी कभी गुस्सा नहीं होते।तुम कागज के नए टुकड़ों पर इतरा रहे हो,जो तुमलोगों ने किसी तरह हासिल कर लिए हैं।'
' और तुम?'
' मैं अपने पुश्तैनी काग़ज़ात टटोल रहा हूं,अपने बाप दादा की भीख वाली झोलियों में।'
' तुम पुश्तैनी भिखारी... बेगर हो?'
' जैसे तुम सब खानदानी भगोड़े हो।'
' क्या?'
' हां।झमन सिंह का नामी गिरामी परिवार परंपराओं का निर्वाह करता हुआ सड़क पर आ गया है।'
' कौन झमन?'
' झमन सिंह,मेरे दादा थे।जमीन जायदाद थी।खेती बारी करते हुए कर्ज में दबते गए।जमीन रेहन हुईं,फिर बैनामा।बची खुची कुछ जमीन भगोड़ों के भेंट हो गई।परिवार सड़क पर आ गया।'
' तुम?'
' गुमान सिंह हूं, झमन सिंह का बेटा।बी ए किया है,आर्ट से।नौकरी नहीं हुई।'
' हम लंबे अरसे से यहां रह रहे हैं।'
' और हम यहीं के है।फ़र्क है कि तुमलोगों के चलते हमलोग भिखारी हो गए।'
' ज्यादा मत बोलो।'
' अभी बोलने को और भी है।जरा धैर्य रखो भगोड़ो! कौन ठिकाना हमारी जमीन तुम्हारे पास से निकले।'
फिर वह भिखारी अपनी पोटलियों में जल्दी जल्दी कुछ तलाशने लगा।
"मौलिक व अप्रकाशित"
आदाब। गोष्ठी का बढ़िया आग़ाज़ करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। रचना के तीन भाग आरंभिक, मध्य व अंतिम पृथकत: क़ाबिले ग़ौर हैं। आरंभिक भाग व संवाद भिखारियों पर केंद्रित कुछ लघुकथाओं का स्मरण करा देती हैं। मध्य भाग विषयांतर्गत देश की नागरिकता संबंधित दस्तावेजों को जुटाने की जद्दोजहद और तंज लिये हुए है। अंतिम भाग 'भगोड़ों' पर केंद्रित व तंजदार है। इस तरह रचना में तीनों भागों में प्रवाह और विषय 'नागरिक' पर तो है, लेकिन लगता है कि रचना अभी और समय या सम्पादन माँग रही है मेरे पाठकीय दृष्टिकोण मात्र से। सादर।
आपका आभार आदरणीय उस्मानी जी।
सम-सामयिक विषय पर एक अच्छी लघुकथा कही ही आ० मनन कुमार सिंह जीl यह तो बिलकुल वैसा ही है जैसे किसी विशाल बरगद से कोई प्रवासी पक्षी उसका बर्थ सर्टिफिकेट मांग रहा होl मेरे विचार में लघुकथा की पहली पंक्ति अनावश्यक है, पूरी बात दूसरी पंक्ति से बिलकुल साफ़-साफ़ पता चल रही थीl इस प्रभावशाली लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित हैl
लघुकथा को मान बख्शने के लिए आपका आभार आदरणीय योगराज जी।
नमस्कार आदरणीय मनन कुमार सिंह जी | गोष्ठी का आगाज़ आपकी लघुकथा से हुआ है, इस हेतु बधाई स्वीकार करें | संवाद शैली में लिखी हुई आपकी यह लघुकथा विषयानुरूप हुई है, कथानक सुन्दर है, शीर्षक भी सटीक है| बाकि बातें शहजाद भाई और आदरणीय योगराज सर ने कह ही दी है ...| इस लघुकथा हेतु बधाई स्वीकार करें |
एक बेहतरीन समसामयिक लघुकथा से लघुकथा गोष्ठी का आगाज करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी।
आपका आभार आदरणीय तेज वीरजी।
विचारोत्तेजक लघुकथा।किन्तु प्रथम पंक्ति अनावश्यक लग रही है या फिर इसमें बदलाव किया जाए तो मुझे लगता है यह ज्यादा प्रभावी रहेगी।
अपनी ढपली अपना राग - लघुकथा –
बिहार के चुनाव की घोषणा होते ही हर गली हर चौराहे के नुक्कड़ पर चाय की दुकानों पर छुटभैये नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया। हमारे मुहल्ले की चाय की टापरी पर भी काफ़ी चहल पहल थी।गर्मागर्म चाय के साथ सरकार के काम काज पर भी धुआंधार बहस चालू थीं।
आज की बहस का मुद्दा था गिरती जी डी पी।सरकारी खेमे के नेताजी उसके पक्ष में दलीलें दे रहे थे। और विपक्षी नेताजी उनकी दलीलों की धज्जियाँ उड़ा रहे थे।कोई भी किसी से सहमत नहीं था। बे सिर पैर के तर्क दे रहे थे।
चाय वाला एक रिटायर बुजुर्ग था। उनकी इस बहस बाजी से वह भी दुखी था। एक चाय पीते थे और घंटों बैंचें घेरे रहते थे।बहुत से ग्राहक तो बाहर से ही लौट जाते थे।कुछ उधार वाले ग्राहक तो बाहर ही खड़े खड़े चाय पीकर चल देते।
बहस का कोई निचोड़ निकलते न देख सरकारी पक्ष वाले नेता जी ने आखिरी तीर चलाया,"सुनो गुरू जब तक तुम्हारी आँखों पर ये विपक्ष का चश्मा लगा है, तुम्हें हमारी बात गलत ही लगेगी।"
"क्या यार तुम भी ऊल जलूल बातें करते हो।ये भी कोई तर्क है?"
उसी समय चाय वाले बुजुर्ग खाली कप उठाने आये।"
अच्छा बाबा आप बताओ। आप तो आज़ादी से पहले से हो। क्या हमारा चश्मे वाला तर्क गलत है?"
"बेटा, तुम लोगों के पेट भरे हैं अतः ये बातें सुहाती हैं। मेरी उम्र पिचहत्तर साल है।दो वक्त की रोटी के लिये सुबह पाँच बजे से रात को ग्यारह बजे तक खटता हूँ।मेरी जगह एक दिन खड़े रह कर देखो।सारे सवालों के जवाब मिल जायेंगे।"
“लेकिन इस उम्र में आप क्यों इतनी मेहनत करते हो ? और कोई नहीं है क्या परिवार में ? मेरा मतलब है आपकी औलाद।“
“था एक बेटा।बी एस एफ़ में सिपाही था। पुलवामा बम ब्लास्ट में मारा गया।अभी तक तो सरकार से केवल आश्वासन ही मिले। अब आप बताओ मैं कौनसा चश्मा लगाऊँ ?“
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
आदाब। वाह 1- विपक्ष का चश्मा, 2- चश्मे वाला तर्क और 3- कौन सा चश्मा लगाऊँ? ... बस, सबके साथ... अपनी ढपली, अपना राग। बहुत ही समसामयिक बेहतरीन यथार्थपूर्ण विचारोत्तेजक तंजदार रचना हेतु हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब। हार्दिक बधाई। // "बिहार......." // तक सीमित न रखकर उस शब्द के स्थान पर यदि ऐसा कुछ लिखें, तो? -- // देश के जिस बहुचर्चित और विवादित राज्य के चुनावों की देशवासियों और नेताओं की बहुचर्चित प्रतीक्षा विवादित थी, उस राज्य के चुनावों की घोषणा होते ही.....//
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