किसे सुनाऊँ अपनी पीड़ा, किसको मैं समझाऊँ
सब पत्थर के देव यहाँ हैं, किस से सर टकराऊँ
युग कोई भी यहाँ रहा हो, सबने हमें ठगा है
माँ ममता की मूरत कहकर, देता रहा दगा है
कल जैसी ही आज हमारी, वैसी भाग्य निशानी
जुड़ी उसी से सुन लो यारा, अपनी एक कहानी
शादी के दस साल हुए थे, पर ना गोद भरी थी
बाँझ न रह जाऊँ जीवन भर, इससे बहुत डरी थी
देख किसी बच्चे को सोचूँ, झट से गले लगा लूँ
छाती का मैं दूध पिलाकर, अपनी प्यास बुझा लूँ
रूह हमारी तड़प रही थी, सुनने को किलकारी
बिन बच्चे का एक-एक दिन, लगता था जस भारी
लगी भटकने यहाँ -वहाँ मैं, छोड़ा दर ना कोई
मंदिर मस्ज़िद चर्च गयी मैं, हर दर दुखड़ा रोई
पीर गयी दरगाह गयी मैं, मन्नत हर दर माँगी
टोट्को का भी लिया सहारा, रात कई मैं जागी
पर टोट्को को इस दुनिया ने अलग नज़र से देखा
फेर निगाहें सबने मुझसे खीचीं लक्ष्मण रेखा
मेरे प्रति हमदर्दी सबकी, फुर्र हुई पल भर में
मैं डायन हूँ बात यही अब, फैल गयी हर घर में
मैं हर एक दुखद घटना की जिम्मेदार कहाती
रोष घृणा दुत्कार यही बस, दर -दर अब मैं पाती
डायन - डायन कह कर मुझको, सारे लोग बुलाते
मैं जादू टोना कर दूँगी, पास न मेरे आते
साँझ -सवेरे सिर्फ़ मिले अब, जग वालों के ताने
पति भी दारू पीकर मारे, करके रोज बहाने
कल तक तो सारे अपने थे, सबके हित जगती थी
चाची भाभी मामी या तो ननद बुआ लगती थी
छठ्ठी बरही का सोहर या, गीत गवनई सारे
गाती और थिरकती थी मैं, सब में बिना विचारे
सबके सुख- दुख में शामिल मैं बड़े प्यार से होती
सब के सुख में हँसती थी औ' सबके दुख में रोती
राम दुलारे का था लड़का, नटखट राज दुलारा
वो मासूम बहुत भोला था, सबको था वो प्यारा
खेल -खेल में यूँ ही इक दिन, वो मेरे घर आया
देख उसे मैं रोक न पाई, चूमूँ! जी ललचाया
हो अधीर ममतावश मैंने, उसको गोद उठाया
टॉफी दे गालों को चूमा, उस पर प्यार लुटाया
खेल नियति का रब ही जाने, कैसी विपदा आई
मूर्छित होकर लाल गिरा वह, मैं अतिशय घबराई
ओझा सोखा डॉक्टर सारे, उसको बचा न पाए
मैं डायन हूँ, मैंने मारा, सब ने दोष लगाए
पति को भी मिल गया बहाना, निर्णय इक कर डाला
मौका ऐसा पाकर उसने घर से मुझे निकाला
बड़े बुजुर्गों ने अगले दिन इस हित सभा बुलाई
सबने जम के कोसा मुझको जिसकी बारी आई
बच्चों को वश में करती यह, करके जादू टोना
इस डायन के कारण ही तो, आज पड़ा है रोना
माँ की ममता क्या होती है, क्या हैं उसके माने
यह डायन इक क्रूर निर्दयी, पीर प्रसव क्या जाने
नहीं भरा जी उनका मुझसे, गली - गली घुमवाया
मैं सच्ची हूँ इस हित केवल, हाथ अग्नि उठवाया
डाल दिया फिर गर्म तेल में, झट से हाथ हमारा
मैं बेबस असहाय करूँ क्या, कोई नहीं सहारा
मैं तो ममता बाँट रही थी, बना दिया क्या सबने
इनके हाथों ही होनी है, मौत लिखी अब रब ने
सात वचन देने वाले ने दगा दिया फिर मुझको
तेल किरोसिन डाला मुझपर, जला दिया फिर मुझको
मैं तो घिरी अग्नि ज्वाला में किसको आज बुलाती
मानव जो पशु से बदतर क्या उनसे आस लगाती
कौरव की उस भरी सभा में चीर बढ़ाने वाले
मेरी जान बचाने अब वो, कृष्ण न आने वाले
धू- धू कर के राख बनी मैं, साख गयी मिट सारी
मेरे बाद और कितनी अब, 'नाथ' जलेंगी नारी
अंतिम नार नहीं मैं कोई, इतना तो तुम जानो
मुझ सी जलती रोज़ अनगिनत, इतना तो तुम मानो
फिर कलका अख़बार देखना, कोई ख़बर मिलेगी
विषय भले ही इतर मिले पर जलती देह दिखेगी
अग्नि परीक्षा का विरोध यदि, सीता भी कर देती
औरों को भी हिम्मत आती, कड़े कदम कुछ लेती
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0बृजेश जी सादर अभिवादन। हृदयतल से आभार आपका
बहुत ही सारगर्भित और मार्मिक रचना है भाई...बधाई
आद0 कृष मिश्रा जान गोरखपुरी जी सादर अभिवादन। अभिवादन आपका।
आपकी सामाजिक जागरूकता का दिल कायल हो गया है, इस रचना हेतु अशेष बधाई आ. भाई नाथ सोनांचली जी।
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम,, आपका आशीर्वाद मिला,, धन्य हुआ।यूँ ही आशीष बनाये रखें।
जनाब नाथ सोनांचली जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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