परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 133वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब अली सरदार जाफ़री साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"रफ़्ता रफ़्ता बन गए इस अहद का अफ़्साना हम "
2122 2122 2122 212
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
बह्र: रमल मुसम्मन महज़ूफ़
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 28 जुलाई दिन बुधवार को हो जाएगी और दिनांक 29 जुलाई दिन गुरुवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीया Rozina Dighe जी
सादर अभिवादन
बढ़िया तरही ग़ज़ल कही है आपने ,बधाइयाँ। उस्ताद जी और गुणीजनों की इस्लाह पर ग़ौर करें
आदरणीय सालिक गणवीर जी
बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
हाथ में मोज़ा पहनते पाँव में दस्ताना हम
आशिक़ी में कर रहे हैं हरकतें बचकाना हम /1
सायकिल पर लादते हैं नून लकड़ी तेल अब
भर रहें हैं इश्क़ का इस तरह से जुर्माना हम /2
लड़खड़ा कर घर में आकर डांट बीवी को पिला
रोज़ यूँ करते हैं वाज़ेह हिम्मत-ए-मर्दाना हम /3
देर से जाते हैं और जाते ही खाते डांट हैं
हाज़िरी दफ़्तर में यूं लगवाते हैं रोज़ाना हम /4
क्यूं ज़मानत मांगता है जाम की तू साक़िया
घर नहीं ले जायेंगे साक़ी तेरा पैमाना हम /5
दोस्तों को साथ ले अाए तो ये होना ही था
लग रहा है लाए हैं घर पूरा पागल-ख़ाना हम /6
मय-कदे के क़ाइदे हम से ही पूछे जायेंगे
जेब में साक़ी हमारे साहिब-ए-मैख़ाना हम /7
'तल्ख़' सा सच कह दिया था और उस पर अड़ गये
शहर वालों की नज़र में हो गये रिंदाना हम /8
"मौलिक एवम अप्रकाशित"
आदरणीया रोजिना जी, बहुत शुक्रिया
जनाब संजय शुक्ला जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें,आपने इस बार भी नियमानुसार तरही मिसरे पर गिरह नहीं लगाई है?
'हाथ में मोज़ा पहनते पाँव में दस्ताना हम
आशिक़ी में कर रहे हैं हरकतें बचकाना हम'
मतले के एक मिसरे में 'ह' ख़फ़ी का क़ाफ़िया है,एक में अलिफ़ का जबकि तरही मिसरे के हिसाब से पूरी ग़ज़ल 'ह' ख़फ़ी के क़वाफ़ी पर कहना है ।
'क्यूं ज़मानत मांगता है जाम की तू साक़िया
घर नहीं ले जायेंगे साक़ी तेरा पैमाना हम'
इस शैर के ऊला में 'साक़िया' और सानी में 'साक़ी' शब्द शैर को कमज़ोर कर रहा है, ऊला यूँ कह सकते हैं:-
'क्यों ज़मानत माँगता है जाम की तू बार बार'
कृपया आयोजन में सक्रियता बनाएँ ।
आदरणीय समर कबीर साहब, हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया।
मतला सहीह करने की और गिरह लगाने की कोशिश कर रहा हूं।
जनाब संजय शुक्ला जी आदाब, तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मुबारकबाद पेश करता हूँ। सातवाँ और आठवाँ शे'र ख़ूब हुए हैं। समर साहिब की इस्लाह पर ग़ौर कीजियेगा। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन जी, आप का बहुत शुक्रिया।
आदरणीय संजय जी, नमस्कार
अच्छी ग़ज़ल हुई, बधाई स्वीकार कीजिए
सर जी की इस्लाह पर ग़ौर कीजियेगा।
सादर।
आदरणीया ऋचा जी बहुत शुक्रिया
आदरणीय संजय शुक्ला जी, मुझे अलग अंदाज़ लिए ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी। सर् की इस्लाह के अनुसार ग़ज़ल सुधार के बाद बेहतरीन हो जाएगी। सादर
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