आदरणीय साथियो,
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बहुत सुंदर और सार्थक लघुकथा हुई है आ० तस्दीक़ अहमद खान साहिब। संदेश भी बहुत सकारात्मक निकल कर आ रहा हैं । मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
मुहतरम योगराज साहिब, लघुकथा आपको अच्छी लगी है जिसके लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आपकी हौसला अफजाई से एक नई ऊर्जा हासिल होती है
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन। एक सधी और संदेश परक लघुकथा हुई है । बहुत बहुत हार्दिक बधाई।
जनाब भाई लक्ष्मण धामी साहिब, आपकी इस हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
सार्थक लघुकथा।
मोहतरमा दिव्या जी, आपकी इस हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
आदाब। विषयांतर्गत बढ़िया सकारात्मक संदेशवाहक रचना हेतु हार्दिक बधाई जनाब तस्दीक़ अहमद ख़ान साहिब। पहली पंक्ति वाले लघु संवाद में इंवर्टिड कौमाज़ नहीं लग सके हैं।
जनाब शेख शहजाद साहिब आ दाब, लघुकथा पसंद करने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया
सुंदर सार्थक और विषय को सफलता से परिभाषित करती इस लघुकथा के लिये हार्दिक बधाई आदरणीय तस्दीक एहमद खान जी।
मोहतरमा प्रतिभा साहिबा, लघुकथा पसंद करने और आपकी इस हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया
भग्नमन
प्रिय सहेली शीलू,
चिट्ठी लिखने में देर हुई।क्षमा करना।तुमने मेरा पिछला पत्र पढ़कर उसमें उद्भाषित हुई मेरी उद्विग्नता का जिक्र किया था।भरोसा रखने की नसीहत भी दी थी। पर सखि, भरोसा रखते रखते जब वह खंडित होता है,तब आदमी थका हुआ महसूस करने लगता है।ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ है।जोर देती हो तो लो सुन लो:
मैं नई नई कॉलेज़ में गई थी।एक दिन छात्र -सभा हुई।अमीश नाम के सुंदर गठीले एक उच्च दर्जे के छात्र के भाषण से मैं बहुत प्रभावित हुई।पूछताछ पर पता चला कि वह स्नातकोत्तर का था।उसके चाल चलन और चरित्र के काफी चर्चे थे।सुना कि सभी जरूरतमंद छात्र छात्राओं की वह मदद भी करता था;चाहे पढ़ाकर या अन्यथा भी। मैं अचंभित थी कि खुद की पढ़ाई करते हुए वह कैसे कॉलेज की जरूरतमंद मंडली की सहायता करता होगा।
धीरे धीरे मैं उसके करीब आने लगी। आ भी गई।बड़ा आसान लगा यह सब।कितना सरल व्यक्तित्व है उसका, मैं सोचती;कहां वह उच्च वर्ग लड़का,कहां मैं कॉलेज में नितांत नई।जूनियर भी हूं।पर उसने पास आने दिया।यह उसका बड़प्पन ही तो है।
नजदीकी भरोसे का शक्ल अख्तियार कर गई। दुर्गापूजा की छुट्टी में भी मैं उसके कहने पर घर नहीं गई।हॉस्टल में ही रह गई कि इस दरम्यान वह मेरी तैयारी पूरी कर देगा।अलग से ट्यूशन की जरूरत न होगी।
फिर उस दिन शाम को उसके कमरे में गई,क्योंकि दिन में आने से उसने मना किया था।बोला था ,पूजा का दिन है।थोड़ी कर लेंगे।फिर शाम को ढंग से अभ्यास करेंगे।उसने
उत्साहपूर्वक दरवाजे पर मेरा स्वागत किया। मैं अंदर आई। दरवाजा बंद हुआ।उसने हमेशा की भांति मेरे कंधे पर हाथ रख स्नेह जताया।सीने से भी लगाया। ।पर और दिनों की तरह मुझे प्रेम करके अपने से अलग नहीं किया।उसका हाथ अब मेरी पीठ पर फिसलने लगा।फिर और नीचे चला गया।वहां ठहर सा गया।दूसरे हाथ से वह मुझे अपने सीने से और ज्यादा चिपटाए जा रहा था।मेरे शरीर में सिहरन हुई। मैं उससे अलग होना चहती थी,पर पकड़ मजबूत थी।हो न सकी।मैने उसके चेहरे की तरफ देखा,तो उसने अपने होंठ मेरे होंठ पर रख दिए।फिर ......
मेरी आंख खुली। मैं निढाल पलंग पर थी।वह मेरे चेहरे पर दुलार कर रहा था। मैं उसका चेहरा देखती रही।वह मेरा भरोसा छिन्न भिन्न करता रहा।मैने चिल्लाना चाहा,तो मेरी आवाज उसके होंठो में दब गई। मैं अचेत हो गई।आंख खुली तो देखा वह गर्व से सीना फुलाए सिगरेट के कश लगा रहा रहा था।बोला,' कपड़े पहन लो।जाओ। हां,आती रहना।'
मैंने गुस्से से उसे देखा,तो पलटकर बोला, 'कोई भरोसा नहीं करेगा।इसलिए अच्छा हो,जबान न खुले।'
अब मैं टूटे भरोसे वाली छात्राओं की टोली बना रही हूं। उस हरामजादे का उत्सव मनेगा,तो तुम्हे भी बुलाऊंगी।तुम अपने कॉलेज का यह उत्सव देखना, प्रिय सखि!'
तुम्हारी,
मीनू
"मौलिक व अप्रकाशित"
पत्र-शैली में बहुत ही प्रभावशाली लघुकथा रची है आ० मनन कुमार सिंह जी। इस शैली की विशेषता है कि इसमें एक से अधिक कालखंड लिए जा सकते हैं, इसलिए मुझे यह शैली बहुत पसंद है। मुझे लगता है कि मीनू के साथ अमीश ने जो किया, उसका वर्णन इतना खुला नहीं बल्कि संकेतात्मक होता तो बेहतर होता। बहरहाल इस कृति पर मेरी आत्मिक बधाई स्वीकार करें।
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