आदरणीय साथियो,
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पालतू जानवर के साथ घर के बुजुर्ग की स्थिति की तुलना अनेक कथाओं में की गई है।
विषय भी कई बार दोहराया गया है।कथानक पुराना हो लेकिन कथ्य नवीन हो तो लघुकथा में जान आ जाती है।
इस कथा में दोहराव है।
आशा करती हूं आप मेरी टिप्पणी को अन्यथा नहीं लेंगे।
जी!बहुत-बहुत धन्यवाद, आदरणीय।
आदरणीया बबिता जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति. हार्दिक बधाई.
डोगी-डॉगी
एसी-ए.सी.
बेवश- बेबस या विवश
जी।बहुत-बहुत धन्यवाद, सर
कथ्य जाना पहचाना है।जैसा दिव्या जी ने कहा,प्रस्तुतिकरण मे कसाव जाने-पहचाने विषय को प्रभावी बना देता है। बहरहाल हार्दिक बधाई इस रचना के लिये
//मुझे भी अपने डोगी के साथ पार्क में घुमाने ले जाया करो..// बहुत ही मार्मिक व प्रभावोत्पादक पंक्ति है.
लघुकथा अच्छी हुई है, साथियों की राय पर गौर करें और मेरी बधाई स्वीकार करें.
विषय में नया पण नहीं है एवं अनावश्यक (...) आशा करती हूँ आप अन्यथा न लेंगी | बहरहाल बधाई स्वीकारें|
"मृत शरीर "
वह दरवाजा खोलकर अंदर दाखल हुआ . स्नेहा उसे कही दिखाई नहीं दी . उसने आवाज भी लगाईं पर ....होगी शायद अंदर वाले कमरे या वाशरूम में . आ जाएगीं ये सोचकर वो सोफे पर बैठ गया . तभी उसका ध्यान टेबल पर पडी अधखुली डायरी पर गया . क्या होगा इसमें इस उत्सुकता से उसने डायरी उठाई .
" स्नेहा कविताएँ-कथाएँ लिखती है ये तो उसे पता था . उन्हें पढ़ने का आग्रह कभी उसने नहीं किया , ना कभी खुद होकर कुछ सुनाया."
उसने डायरी खोल ली . अपने स्वभाव की तरह ही स्नेहा की डायरी एकदम व्यवस्थित. पहले पन्नों पर अनुक्रमाणिका, उसके आगे पृष्ठ संख्या ...
वो एक-एक पन्ना पलटता रहा .अचानक उसका ध्यान एक शीर्षक पर गया " लाशें भी "
वो पढ़ने लगा.....
आपको पता है
लाश बिल्कुल तुम्हारी तरह है
लाश खाती है
लाश बैठ जाती है
लाश सो रही है
.......
.........
.........
.........
बस एक ही अंतर है-
लाशें लाशें हैं
बहुत कुछ तुम्हारे जैसी
थोड़ा
तुमसे अलग !!
वो कुछ क्षण सुन्न हो गया . विचारो के भवर में उलझ गया . कुछ समझ ना पाया की आखिर क्या बात कहना है कविता में.
" छोड़ो इसे ये तुम्हारे लिए नहीं है " हाथ से डायरी खींचते स्नेहा ने कहा .
उसने डायरी को कसकर पकड़ रखा था . वो छुड़ा नहीं पाई .
स्नेहा चाय और नाश्ता टेबल पर रख उसके सामान्य होने का इंतज़ार कर रही थी.
क्या यह कभी हुआ? एक मुर्दा एक जीवित व्यक्ति की तरह कैसे हो सकता है? कुछ भी । मुझे समझाओ। मुझे कुछ समझ नहीं आया। एक लाश कैसे बात कर सकती है?'
"क्यों? क्यों नहीं बोल सकता . अभी एक ही लाश ही तो तुमसे बात कर रही है, और सुन भी रही है .
चलो छोड़ो चाय पीते है . उन्हें कभी -कभी मनुष्य भी चाहिए होते है. चाय का कप आगे बढ़ाते स्नेहा ने कहा
मौलिक व अप्रकाशित
कटु सत्य... कठपुतली बनी स्थिति पर करारा तंज.
बेहतरीन रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय।
स्त्री विमर्श एक नये कलेवर में खूबसूरती से रखा है आपने। हार्दिक बधाई। कुछ एक जगह कसावट की जा सकती थी।
हार्दिक बधाई आदरणीय नयना जी।लाजवाब प्रस्तुति।
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हार्दिक बधाई आदरणीय बबिता जी।सुन्दर लघुकथा।