परम आत्मीय स्वजन,
"ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो"
ज़िन्दगी क्या/ है किताबों/ को हटा कर/ देखो
2122 1122 1122 22
फाएलातुन / फएलातुन / फएलातुन / फैलुन
रमल मुसममन मख़बून महज़ूफ़
मुशायरे की शुरुआत दिनाकं २७ अक्टूबर दिन गुरूवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक २९ अक्टूबर दिन शनिवार के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा |
अति आवश्यक सूचना :- ओ बी ओ प्रबंधन ने यह निर्णय लिया है कि "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक १६ जो तीन दिनों तक चलेगा,जिसके अंतर्गत आयोजन की अवधि में प्रति सदस्य अधिकतम तीन स्तरीय गज़लें ही प्रस्तुत की जा सकेंगीं | साथ ही पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह तय किया गया है कि नियम विरुद्ध व निम्न स्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये और बिना कोई पूर्व सूचना दिए प्रबंधन सदस्यों द्वारा अविलम्ब हटा दिया जायेगा, जिसके सम्बन्ध में किसी भी किस्म की सुनवाई नहीं की जायेगी |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है :
"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ
( फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो २७ अक्टूबर दिन गुरूवार लगते ही खोल दिया जायेगा )
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान सम्पादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन
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तुम समझ न सकोगे दूरियो की तड़प को;
अंधेरा होता है क्या, रोशनी को हटा कर देखो.
सुंदर भावों के लिए बधाई ज्ञानेन्द्र जी, बहर में आने का सबसे आसान तरीका है दिए मिसरे को बार बार, कम से कम सुबह दोपहर शाम, पचास पचास बार कहिए। बाकी मिसरे अपने आप बहर में निकलने लग जाएँगें।
सही तरीका बताया धर्मेन्द्र भाई !
बह्र में सुधार के लिये कई उपाय और होंगे भी, परन्तु, इस सुझाव से बढ़ कर और कोई उपाय नहीं है.
ज्ञानेंद्र जी, आपका कहन बहुत सुन्दर है बस ज़रा वज्न-ओ-बहर पर मेहनत कीजिए ! बहरहाल इस सुन्दर रचना पर मेरी दिली बधाई स्वीकार करें !
बहुत सुन्दर ग़ज़ल त्रिपाठी जी, बधाई.
सफ़र जिंदगी का है नये रास्तों से ही;
जिंदगी क्या है,नये रास्ते बनाकर देखो.
समंदर के सीने मे मौज है कितनी;
समंदर के सीने मे तुम समाकर देखो.
तुम समझ न सकोगे दूरियो की तड़प को;
अंधेरा होता है क्या, रोशनी को हटा कर देखो.....behtareen gazal.
bahut badhia sir
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा ... की तर्ज़ पर कहूँ तो...
एक ग़ज़ल अशाऽऽऽऽऽर भरी, सबके सामने गयी कही.
मग़र खूब मज़ा लिया बड़े भाई. कुछ अशार बहुत अच्छे हैं, कुछ बहुत-बहुत अच्छे हैं और कुछ तो एकदम से दिल को छू गये हैं.
दिन कहीं बीते मगर रात को घर ही भाये
शाख पर लौटे परिंदों को उड़ा कर देखो
अव्वल तो इस परख पर ही दाद कुबूलें. अपनापन को बहुत ही सुन्दर ढंग से बाँधा है आपने.
खून जो चूस रहे मौत उन्हें भी आती
तुम नमक जोंक के ऊपर तो गिरा कर देखो
एकदम देसी अंदाज़, ज़मीनी खयाल. .. क्या ही ज़िन्दाबाद शेर है, वाह वाह !
गम खुशी एक ही सिक्के के हैं दोनों पहलू
गुड्डे गुड़ियों का कभी ब्याह रचाकर देखो
संज़ीदा बात कितनी आसानी से कही है आपने भाई साहब. बच्चे भी अपनी नज़र में चाहे जो हों बड़ों की की नज़र में हमेशा-हमेशा गुड्डे-गुड़िया ही रह जाते हैं. वहीं खुशी.. और उन्हीं से ग़म.
एक लम्हे में ही कर लेती ये रिश्ता कायम
तुम निगाहों से निगाहें तो मिलाकर देखो
अय-हय ! इन निग़ाहों के रिश्तों से ही तो पगे हैं सारे के सारे रिश्ते. ..
यूँ ही परवाज़ नहीं होती, समझ पाओगे
हाँथ में टूटा हुआ पर तो उठाकर देखो
क्या बात कही है.. बहुत खूब.. बहुत खूब.. जाने कहाँ-कहाँ क्या-क्या टूटा है इस परवाज़ में. ये शे’र एकदम से छू गया बड़े भाई.
इस शिरकत और उम्दा प्रस्तुति के लिये सादर धन्यवाद, शेषधरजी.
वाह... वाह.. शेषधर जी कुछ भी शेष न रहने दिया... बधाई.
आदरणीय भाई तिवारी जी आपकी यह ग़ज़ल दिल को भा गयी !! ख़ास तौर पर निम्नलिखित अशआर बहुत पसंद आये !
खुद जो दरिया के किनारे से गुजर जाते हैं
मुझसे कहते हैं समंदर में नहा कर देखो
ख़ामुशी से भी कहानी तो बयां होती है
आँख से उनकी ज़रा आँख मिलाकर देखो
चाँद नजदीक नहीं है न कभी आयेगा
लाख महलों में सितारों को सजाकर देखो
कौन पायेगा मिटा तुमको खुदा के बन्दे
हर निशां पाँव का अपने ही मिटाकर देखो
बात रो रो के कहोगे तो असर क्या होगा
बात सच्ची है तो हिम्मत से बता कर देखो
इस खातिर हमारी ओर से दिली मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं !
सभी शेर बढ़िया बने है, बधाई स्वीकार करे |
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