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प्रदीप जी बहुत बहुत शुक्रिया इस स्नेह के लिए
हम सब कूप मंडूक हैं
फर्क सिर्फ इतना है
कि किसके पास कितनी रोशनी, कितनी सुरंगें
कितनी सीढ़ियाँ और कितनी मिट्टी है
bahut badhiya kathan aapka. badhai, sir ji.
आशीष जी, सौरभ जी, सीमा जी, सतीश जी, अविनाश जी, राजेश कुमारी जी एवं महिमा जी रचना को इतना प्यार देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
मस्तिष्क कि तंत्रिकाओं को जगा देने वाली कविता |
खुद को कूप मंडूक समझना
बाहर की रोशनी का अहसास है
कुँए की दीवारों के बाहर दुनिया की कल्पना
कुँए से बाहर जाने वाली सुरंग है
हम सब कूप मंडूक हैं
फर्क सिर्फ इतना है
कि किसके पास कितनी रोशनी, कितनी सुरंगें
कितनी सीढ़ियाँ और कितनी मिट्टी है....धर्मेन्द्र कुमार सिंह ...behad prabhavi rachana...sadhuwad.
हम सब कूप मंडूक हैं
फर्क सिर्फ इतना है
कि किसके पास कितनी रोशनी, कितनी सुरंगें
कितनी सीढ़ियाँ और कितनी मिट्टी है
अहो नाथ अब नहीं कुछ बाकी ........... सब तो कह दिया हुज़ूर ........ तो फिर बधाई स्वीकार कीजिये
कविता भाषण की तरह होती
या किसी निबंध की तरह
या फिर,
अनायास प्रस्फुटित हुए ज्ञान की तरह.. .
एक बार हो गयी तो होती चली जाती
और समस्त को समेटे अपने उपसंहार में
सायास समाप्त होती .. .
कविता के काश पंख न होते
उड़ान न होती.
निठल्ली पड़ी होती कुओं में.. मोरी में.. किसी गब्दू मेढक की तरह.. ढापुस-ढापुस टर्राती हुई.. .
और हम उसके गलफड़ों के गुब्बारों से निकले सुर पर स्वर न साधते.
भाई धर्मेन्द्र जी, आपकी रचनाएँ इतनी इन्डक्टिंग क्यों होती हैं ? .. हृदय से बधाई.
bilkul sahi vichaaron me kavita likhi hai aapne.
badhai swikaarein.
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